Wednesday 23 September, 2009

आज दर्पण साह "दर्शन" का जन्म-दिन हैं ................ और मेरी कल्पना का बड़ा दिन हैं ............दिन और रात बराबर ............23 september

मिट्टी के दीपक में तारों का सजना ,
धरती के ख्वाबों का बादल बन उड़ना ,
हवाओं में आंधी की ताकत का होना ,
तूफानों का मेरे घर में आकर के रुकना ,
आगन में तुलसी का पौधा लगा हैं ,
मेरी माँ का हर रोज़ सज़दे में रहना ,
सुबह-शाम मोहोबत्त का कलमा यूँ पढना ,
मेरे घर की दीवारे जड़वत नहीं हैं ,
वो हिलती हैं लेकिन गिरती नहीं हैं ,
टकरा कर मुझसे एक दीवार बोली -तूफ़ान से कह दो वो आये संभल कर ,
टूटे हैं सपने कई बार लेकिन, आँखों में आँसूं ठहरते नहीं हैं ,
मोहोबत्त की मर्जी हैं काँटों पर चलना ,
वफाओं का दिल में अहसास लेकर ,
कई दोस्त मिलते हैं ,मिलकर बिछड़ते ,मिलना-बिछड़ना वफ़ा के किनारे ,
वफ़ा एक नदी हैं जो बहती ही जाती ,
कोई दोस्त आता हैं अपना सा बनकर सज़दे में मैं हूँ और कलम की मोहोबत्त ,
कागज़ पर चलती हैं अहसास बनकर ,
दिल में उतरती हैं कोई ख्वाब बनकर ,..................................

और आज मेरे दोस्त दर्पण का जन्म दिन हैं ................
ख्वाबों की दुनिया में हकीक़त हैं "दर्शन", 
हम सब जिसे कहते हैं दर्पण साह "दर्शन".............  



 सलाम दोस्त मैं रूठ ही गया होता तेरे अचानक से 23 september  ka equinox  बता देने पर ....................पर वफ़ा की नदी में बहकर पहुँच रह हूँ  प्राची के पार ......................निसंदेह हर स्वस्थ्य रचना शील समाज को आलोचना की आवशकता होती ही हैं ...............इसी क्रम मैं मैं चाहूँगा तुम्हारा आलोचक भी बनूँ ,...........................सारथी को अचानक से बताओगे कि आज 23 september  हैं तो रथ थोडा बहुत हलचल करेगा  ही हलाकि होगा कुछ भी नहीं मैंने कहा न ,मेरे घर की दीवारे हिलती हैं लेकिन ढहती नहीं ...............मोहोबत्त,मित्रता ...........कभी ढह भी नहीं सकती ................... ढह गयी तो कुछ था ही नहीं .............ढकोसला था .........और मित्र मैं  ढकोसला ,नहीं तुम्हारा मित्र  होना चाहता हूँ .................मुंशी प्रेम चन्द्र कह गए हैं - प्रेम गहरा होता हैं ,मित्रता और भी गहरी ......................इसीलिए कहते नहीं हैं ?.............. माँ-बाप बेटी-बेटे ...............को सिर्फ़ बेटा बेटी माँ बाप ही नहीं दोस्त भी होना चाहिय ................दांपत्य तो बिना मित्रता के ढकोसला ही हैं  ......मित्रता तो इंसानों का विशेषाधिकार हैं ............ .......सो जन्म दिन के साथ मित्रता मुबारक ..............

Friday 18 September, 2009

सुलगती आँच हैं लेकिन ................

जिन्दगी,दर्द ..और  किताब 


दोस्तों मेरे सपने में बहुत अन्दर ,गहरे में कोई एक किताब हैं ३६५-३६६ पेज़ वाली , 
बारह या तेरह खंड हैं उसमें ,
हर एक खंड में कोई तीस-एकतीस घटनाएँ .......
उन सभी घटनाओं के पास अपनी पूरी रात है और हैं पूरा दिन .
माँ अमृता प्रीतम का ज़िक्र हर रात-दिन सुबह और शाम में हैं .शायद यही किताब मेरी जिन्दगी हैं
और मेरी इस जिन्दगी का मकसद अमृता प्रीतम के साहित्य का  मिशनरी बन कर पूरी कायनात के कण-कण में पहुचना हैं , यह सब क्यों-कैसे-किस तरह मुमकिन होगा -नहीं जानता ,पर इतना सा अहसास हैं  कि
अमृता जी का पूरा  का पूरा लेखन खालिस इश्क़ हैं और अगर पूरी दुनिया इश्क़ से सरोबार हो जायेगी तो देश-दुनिया की तमाम तह्ज़ीबो पर इश्क़ की हरी पत्तियाँ लहराएगी -    

हरी पत्ती से याद आया २८ नम्बर १९९० को एक सेमीनार "पीस थ्रू कल्चर"विषय पर अमृता जी की तक़रीर को इमरोज़ साहब ने मन-मंथन की गाथा पुस्तक में तहज़ीब की हरी पत्तियाँ शीर्षक से संकलित-प्रकाशित किया हैं .
और बात जब तहज़ीब-तमीज़-संस्कृति की होती हैं मेरे ज़हन में आग-अंगारे और आक्रोश मेरी रूह को सुलगाने लगते हैं
मेरी आत्मा अग्नि बन जलने-तपने ,लपटें मारने लगती हैं ,
यह अग्नि कभी कलम पकड़ लेती हैं तो कभी किसी किताब में जाकर हमारी संस्कृति की गंगा में स्नान कर शांति-शांति-शांति तलाशती तहज़ीब की पत्तियों को सूखा हुआ देखकर फिर से अशांत हो उठती हैं .................धधकती रूह जिन्दगी की चादर को समेटती हैं और चादर जलती जाती हैं .............
अमृता जी  तहज़ीब बन कई मर्तबा कराह चुकी हैं .......ये दर्द गा चुकी हैं -

तूने ही दी थी जिन्दगी - ज़रा देख तो जानेज़हाँ ! 
तेरे नाम पर मिटने लगे - इल्मों-तहज़ीब के निशां,
तशद्दुद की एक आग हैं - दिल में अगर जलायंगे, 
सनम की ख्वाबगाह तो क्या - ख्वाब भी जल जायेंगे .
     ...........................तहज़ीब का बीज                      


अमृता जी का ही चिंतन हैं और वे हमारा आव्हान करती हैं -दोस्तों हकीक़त हैं की इंसान को छाती में चेतना का बीज पनप जाए तो उसी से तहज़ीब की हरी पत्तियाँ लहराती हैं और उसी की शाखाओं पर अमन का बौर पड़ता हैं ...........तहज़ीब  और अमन की बात पर में आप सब को मुबारकबाद देती हूँ ....................हमारे मिथहास (पुराणशास्त्र) में एक कहानी कही जाती हैं की आदि शक्ति ने जब सारे देवता बना लिए ,तो उन्हें धरती पर भेज दिया .देवता धरती पर जंगलों और बीहडों में घूमते रहे और फिर थककर आदि-शक्ति के पास लौट गए . कहने लगे -"वहां न रहने की ज़गह .न कुछ खाने को हम वहां नहीं रहेंगे ."कहते हैं उस वक़्त आदि-शक्ति ने धरती की और  देखा ,इंसान की और .और कहा -"देखों  ! मैंने इंसान को संकल्प की माटी से बनाया हैं. जाओ उसकी काया में अपने-अपने रहने की ज़गह पा लो ." आदि-शक्ति का आदेश पाकर वे देवता फिर धरती पर आये और सूरज देवता ने इंसान की आँखों में प्रवेश कर लिया ,वायु देवता ने उसके प्राणों में ,अग्नि देवता ने उसकी वाणी में ,मंगल देवता ने उसकी बाहों में , ब्रहस्पति देवता ने उसके रोम-रोम में अपने रहने की ज़गह बना ली और चन्द्र देवता ने इंसान के दिल में अपने रहने का स्थान खोज लिया............   अमृता जी आगे समझाती हैं इन्सान का कर्म और चिन्तन इन सभी देवताओं की भूख को मिटाता हैं ,लेकिन जब इन्सान के अन्दर चिन्तन खो जाता हैं ,कर्म मर जाता हैं ,चेतना का बीज ही नहीं पनपता ,तो यह देवता भूख से व्याकुल होकर मूर्छित से पड़े रहते हैं ................हमारी चेतना ही इन देवताओं का भोजन हैं ,जो देवता ,जो कास्मिक शक्तियाँ हमारे सबके भीतर मूर्छित पड़ी हैं - और उनकी याद हमसे खो गयी ,जिन्हें हम भूल गए यह उसी का तकाज़ा हैं कि कभी-कभी एक स्मरण सा हमारे ज़हन में सुलगता हैं ,हमारी छाती में एक कम्पन कि तरह उतरता हैं और कभी-कभी हमारे होंठों दे एक चीख कि तरह निकलता हैं ................................
और मेरा ख्याल हैं जब-जब यह चीख मेरे अंतस से निकलती हैं ...............मैं कहता हूँ .........मेरी संवेदना-चेतना-आत्मा की चीख-पुकार .............मेरी त्रयी माँ अमृता - मेरी आत्मा-चेतना-संवेदना .....................आज मेरी यह चीख हमारी तहज़ीब कि हरी पत्तियों कि खातिर अन्दर तक लहुलुहान कर गयी ................
ये चीख ये पुकार  ........................................................

ओ खुदा तेरे सज़दे में मेरी रूह घायल हुयी, 
पत्थरों का देवता फिर भी अब खामोश हैं ,
चारों और हैं अँधेरा, तेरे बन्दे ही शैतान हैं ,
हर एक रूह कि हैं  ये दास्ताँ -सब ज़ीते ज़ी ही मर गये, 
चैन आयेगा मुझे कि  कब्र भी खामोश हैं ,
जिन्दगी के मायने अब  कब्र में दफ़न हुये ,
सो रहा हैं ज़हां ,और बुत बना हैं देवता ,
खून से सना हुआ कोई ज़िस्म ढूंढ़ लीजिये ,
जिन्दगी कि नस्ल की  नब्ज़ को टटोलिये ,
मिट गया हैं ज़िस्म पर ज़ी-जान से पुकारिये,
उस खुदा के पास में मेरी रूह उधार हैं ,
पत्थरों में देवता और ज़िस्म में अब जान हैं
एतबार हैं मुझे कि  "इश्क़" ज़िन्दा ही रहेगा ,
मेरे अन्दर झाँककर मेरी रूह को तलाशिये ....................

दोस्तों ये चीख, ये पुकार ,फिरकापरस्ती और शैतानियत के खिलाफ़ अंतस में धधकते आग-अंगारे और आक्रोश चेतना का वरदान हैं ...........तहज़ीब के पत्ते सदा हरे-भरे लहराते रहे ..........आइये इसके लिए अमृता प्रीतम के चिन्तन को बीज कि तरह छाती में बो ले और उसे पनपाने के लिए नफ़रत ,तशद्दुद,,और क्रिध कि बजाए सिर्फ़ और सिर्फ़ इश्क़ मंत्र का पाठ करे

रुक गए हैं रास्ते .............सस्ती हो गयी मंजिले 


.........................अमृता जी अगाह करती हैं - तहज़ीब लफ्ज़ को हम बड़ी आसानी से इस्तेमाल कर लेते हैं .,और चार दीवारियों में कैद कर देते हैं ,हम अपने घर की  , अपने मज़हब की,अपने स्कूल और कॉलेज की कबिलियायी सोच को ,किसी संस्था कि चेतना को ,हमारे संस्कारों कि संस्कारित चेतना  को तहज़ीब का नाम दे देते हैं ........ लेकिन तहज़ीब ,संस्कृति के अर्थ इन सीमाओं से कही बड़े होते हैं , - लियाकत,काबिलियत, तरबियत, और इंसानियत  के अर्थों में जब तहज़ीब खिलती हैं तो वह कायनात कि मज़्मूई चेतना ,सम्पूर्ण चेतना में तरंगीत होती हैं -उस तहज़ीब में "मैं" लफ्ज़ कि पहचान भी बनी रहती हैं ,और "हम"लफ्ज़ भी नुमायाँ होता हैं -  और फिर : -
किसी वाद या एतकाद के नाम पर - 
किसी भी तरह का तशद्दुद मुमकिन नहीं रहता .
किसी भी मज़हब के नाम पर कोई कत्लोखून  हो नहीं सकता  ,
और किसी भी सियासत के हाथ जंग के हथियारों को पकड़ नहीं सकते .........
............और थोडा सा विज्ञानं 

हमारी संस्कृति ,तहज़ीब ,निसंदेह वैज्ञानिक हैं ,
अमृता जी इसके विज्ञानं को ज़रा सा ज़हन में उतार लेने कि बात कर रही हैं -
एक साइंसदान हुये - लैथब्रिज़ .
उन्होंने ज़मीदोज़ शक्तियों का पता पाने के लिए जो पेंडुलम तैयार किया ,
उससे बरसो कि मेहनत के बाद जान पाए कि महज़  चांदी,सोना , सिक्का, जैसी धातुओं का पता नहीं चलता ,
इंसानी अहसास का भी पता लगाया जा सकता हैं ,
लेथब्रिज ने बताया कि -दस इंच के फासले से रौशनी का ,सच्चाई का ,लाल रंग का और पूर्व दिशा का पता मिलता हैं ,
बीस इंच के फासले से जिन्दगी का ,गर्माइश का ,सफ़ेद रंग का और दक्षिण दिशा का पता मिलता हैं .,
तीस इंच के फासले से आवाज़ का ,पानी का ,चाँद का ,हरे रंग का और पश्चिम दिशा का पता मिलता हैं ,
और चालीस इंच के फासले से मौत का ,झूठ का ,स्याह रंग और उत्तर दिशा का पता मिलता हैं .
उन्होंने ऐसे पत्थरों का मुआयना किया जो दो हज़ार साल पहले जंग में इस्तेमाल हुये थे तो पाया कि उन पर वह रेखाए अंकित हो चुकी हैं जो हजार साल के बाद भी इन्सान के क्रिध और तशद्दुद का पता देती थी .
वह नदियों के साधारण पत्थर उठा कर लाये और पाया कि इन मासूम पत्थरों पर ऐसी कोई रेखा नहीं थी ....................कहते हैं -एक बार चारो तरफ फैले हुये तशद्दुद से फिक्रमंद होकर कुछ लोग मीर  दाद के पास गये - एक सूफी दरवेश के पास - कहने लगे "साहिबे आलम  ! यह सब क्या हो रहा हैं हमने तो सोचा था इन्सान तहज़ीबयाफ्ता हो चूका हैं ............. उस वक़्त मीर  दाद कहने लगे -
"किस तहज़ीब की बात करते हो ? यह सवाल तो हवा से पूछना होगा .जिसमे हम सांस लेते हैं और जो हमारे ही खयालो के ज़हर से भरी हुयी हैं - सत्ता कि हवस से ,नफ़रत से ,इंतकाम से ..........."बकोल अमृता जी :-
काया का जन्म माँ  की कोख से होता हैं ,
दिल का जन्म अहसास कि कोख से होता हैं 
,मस्तिष्क का जन्म इल्म कि कोख से होता हैं ,
और जिस तहज़ीब कि शाखाओं पर अमन का बौर पड़ता हैं ,उस तहज़ीब का जन्म अंतर्चेतना कि कोख से होता हैं ............

Thursday 17 September, 2009

आग, अंगारे ..........और आक्रोश

अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व में हम सभी का स्वागत हैं . दोनो कान पकड़कर माफ़ी माँगता हूँ - ब्लॉग-लेखन का कुछ नियम तो होना ही चाहिए . ओर ऐसी कोई मज़बूरी या बहाना नही सुनाना चाहिए जिसे आगे  कर हम पीछे से बचकर निकल जाए -पर साथ ही सभी ब्लॉगर साथियों को मेरे जैसे होनहार बेरोज़गार अनाड़ी को एक बारगी तो माफ़ ज़रूर ही कर देना चाहिए -ओर फिर मैं वैसे भी योग्यता में तो सबसे छोटा ही हूँ ओर फिर  बड़ों की माफी पर छोटो का अधिकार सदियों से रहा हैं  -चलिए माफ़ी तो मिल ही गयी बचपन में ईसी तरह पापा माफ़ी के साथ टाफी भी दिया करते थे ..........पिछले पंद्रह  दिनों के वनवास में मैने सेविंग भी अभी बनाई हैं -इस दरमियाँ जिसने भी पूछा ,किसी शायर 
का ये हुकम उसे सुना दिया-"मेरे चेहरे पर दाड़ी के इज़ाफ़े को ना देख ,ख़त के मज़मून को पढ़ लिफ़ाफ़े को न देख"
हुआ यूँ की ख़त और ख़त के  मज़मून के साथ  कारपोरेट जगत के गलियारे से मुझ बेरोज़गार मज़नू को अपनी लैला रूपी एक अदद नौकरी से मिलने से पहले ही धक्के मार-मार कर निकाल दिया गया - मुझको सज़ा दी दाड़ी की ऐसा  क्या गुनाह किया ...........बेरोज़गार रहे हम दाड़ी के इज़ाफ़े में ........................ओ माय गोड -------------- जब पोस्ट लिखने बैठा था तो अंगारे और आक्रोश ही लिखने लायक ही था ..........पर ब्लॉग पर आते ही अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व और आप सब का ख्याल हो आया ............और माफ़ी के साथ थोडा मज़ाकिया हो लिया ................खैर जो आक्रोश और अंगारे मेरे ज़हन में हैं दरअसल हम सभी से उनका बहुत गहरा इत्तेफ़ाक हैं .और हमारी अमृता जी ने वह दुःख लिखा ही नहीं जिया हैं ..............असल में अमृता प्रीतम ने जो कुछ भी ज़िया हैं वही उनकी कलम का इश्क़ बनकर हम सबों को नसीब हुआ हैं -उनके लेखन में कौरी बोध्धिकता को कोई ज़गह नहीं हैं -उनका हर अक्षर अहसास का कोई रूहानी शिफ़ा हैं जो असल में हम दिल लगा बैठे दिल के रोगियों का एकमात्र इलाज हैं -"शुक्रिया अमृता जी -वरना हम लाइलाज़ रह जाते" . अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व ऐसी अनवरत शुक्रिया  अदायगी के साथ ही ज़िया जायेगा .............इस पूरे वर्ष-पर्व में अमृता जी के विषय में सिर्फ़ चर्चा ही नहीं होगी बल्कि देश-दुनिया के लिए उनका जो नज़रिया हैं उनसे जुडी तमाम बाते और आज के हिन्दुस्तान की जाँच-पड़ताल करते चलेंगे . हर किस्म के इंसानी हालातो को उन्होंने बड़ी शिद्दत के साथ ज़िया और लिखा ..............यह वर्ष पर्व अमृता जी को  सदा के लिए ख्याल और आत्मा में बसाने के लिए हैं  अपनी जिंदगी के हर पल में उन्हें महसूस करने के लिए ............समाज में होती हर अच्छी बुरी बात पर अमृता प्रीतम का नज़रिया क्या-कुछ होता और मोहोब्बत्त को दिल में बसा कर हमारा कर्म क्या होना चाहिए -मैं  जो भी टूटी-फूटी रचनाएँ और अपने ख्याल, इस पावन वर्ष-पर्व पर आपकी खिदमत में पेश करूँगा आप कठोरता से उनका आकलन कीजिये - मेरी रचनाओं पर आपकी आलोचना मेरा सोभाग्य हैं ,मुझे मेरे सोभाग्य से वंचित न करे ऐसा मेरा आप सभी से निवेदन हैं .
प्रशंशा के साथ ही आपकी आलोचनात्मक द्रष्टि मेरे स्वयं के विकास-क्रम हेतु बहुत ज़रूरी हैं अतः मुझे अपनी अंतर्द्रष्टि ke चेतना-लोक का हमसफ़र बना लीजिये ,अभी भले ही ना होऊं ,साथ चलते-चलते आपकी संगत में आपके योग्य हो सकूगा ..............................जब आग लगी .............
कल मेरे घर के सामने जो वाकया हुआ आज तक आग-अंगारे और आक्रोश मेरे ज़हन में ताजा हैं ,आर एस एस ने रात भर हिन्दुओं को उकसाने की कोशिश की - यह कितनी सफल और असफल रही मैं नहीं जानता पर इतना मालूम हैं बाजू वाली मुस्लिम बस्ती बहुत हद तक परेशान हैं .............नफ़रत दोनों तरफ हैं मोहोबत्त की दरकार हैं ..........अगर यह दोनों तरफ़ एक होकर हिन्दू-मुसलमान से जुदा होकर इंसान बन जाए तो कुदरत ही मोब्बत्त सिखला देगी हमें ...........फिरकापरस्ती ,कट्टरता से तो सब तवाह हो रहा हैं ,और पूरी तरह हो जाएगा ................नित नए विकास के सोपान चड़ते हम अपनी ही विकसित तहज़ीब को भूल बैठे हैं ,और जब भूल गए हैं तो याद क्यों नहीं करते .............दुबारा उसका विकास क्यों नहीं करते ............... हमें इतनी नफ़रत क्यों रास आ रही हैं .......
इस नफ़रत ने मेरे अन्दर अंगारे - आक्रोश और  अगीठी का इंतज़ाम कर दिया ............तमाम फिरकापरस्ती आवाज़ों के बीच मेरी तरुणाई जाने कहाँ खो गयी ...............  लगातार तीन घंटे तक मुल्क़ की तहज़ीब- तमीज़ को नोचते -खसोटते रहे तथाकथित धर्मों के ठेकेदार और मैं घर का नपुंसक बन गया क्यों ? क्यों? आखिर क्यों? ,

जल गया हूँ सीने में आग तो लगी नहीं ,
हिन्दुओं और मुस्लिमों की साख तो गिरी नहीं ,
नष्ट-भ्रष्ट हो गया मैं ,मज़हब सारे जल रहे  ,
मौन  व्रत धारण किया असाध्य रोग से बंधा ,
कैसे बोलूं इन्कलाब कौम से डरा हुआ मैं नपुंसक हो गया ,
जल
  रहा इंसान हैं ना हिन्दू हैं ना मुसलमान हैं ,
वेग से थका हुआ ,चारों और देखकर आँख  मीच सो गया मैं नपुंसक हो गया ,
जल रहा हूँ सीने में आग क्यों लगी नहीं पर ?,
आग को मैं देखता ,देखता ही रह गया ...................मैं नपुंसक हो गया ......
ना हिन्दू हूँ ना मुसलमान हूँ ,फिर क्यों अपराधी हो गया ......,
जल गया हूँ सीने में पर ज़ख्म ही नहीं हुआ .................हाँ मैं नपुंसक हो गया ..,
इंसान सारे जल गए ,धर्म शेष रह गए ,धर्म का करोगे क्या ?,
सब नपुंसक हो गए ..................,
इन्कलाब..................इन्कलाब         कौन बोले .इन्कलाब ...
इंसान तो रहे नहीं सब हिन्दू और मुसलमान हैं ...................,
देखते ही देखते सब नपुंसक हो गए ........................


हां दोस्तों हम सब क्या वाकई इतने उदासीन हो गए ,छोटे शहरों में .बडो मेट्रो में ............ हमारे  हिन्दुस्तानी गावं में ...................हर तरफ़ दुबारा से फिरकापरस्ती .कट्टरपंथी ताकते क्यों कर आजमाइश कर रही हैं ..........हिन्दुस्तान एक सतरंगी ग़ज़ल हैं ............................इसे हम कैसे बचाएं ................अमृता जी ज़हन में हैं ...........

  "हम नहीं जानते की जब कोई पत्थर उठाता हैं,
तो  पहला ज़ख्म इंसान को नहीं इंसानियत को लगता हैं ,
धरती पर जब पहला खून बहता  हैं ,
वो किसी इंसान का नहीं इंसानियत का होता हैं ,
और सड़क पर जो लाश गिरती हैं वह किसी इंसान की नहीं इंसानियत की होती हैं ,
फिरकापरस्ती ,फिरकापरस्ती हैं ,
 उनके साथ हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान शब्द जोड़ देने से कुछ नहीं होगा .
अपने आप में इन लफ्जों की आबरू हैं ,
इनका एक अर्थ हैं ,इनकी एक पाकीज़गी हैं ,.................
लेकिन फिरकापरस्ती के साथ इनका जुड़ना इनका बेआबरू हो जाना हैं ,
इनका अर्थहीन हो जाना हैं और इनकी पाकीज़गी का खो जाना हैं ,
जो कुछ गलत हैं वह सिर्फ़ एक लफ्ज़ में गलत हैं ,
फिरकापरस्ती लफ्ज़ में .
 उस गलत को उठाकर कभी हम हिन्दू लफ्ज़ के कंधो पर रक्क्क्क्क्क्क्क्क्ख देते हैं ,
कभी सिक्ख लफ्ज़ के कंधो पर ,
और कभी मुसलमान लफ्ज़ के कंधो पर ,
इस तरह कंधे बदलने से कुछ नहीं होगा .
ज़म्हुरियत का अर्थ ,लोकशाही का अर्थ ,चिंतनशील लोगो का मिलकर रहना हैं ,मिलकर बसना हैं ,
और चिन्तनशील लोगो के  हाथ में तर्क होते हैं .............पत्थर नहीं होते ................"
 सच दोस्तों हमारे हाथ में पत्थर होने भी नहीं चाहिए ............................अमृता जी के इस महान और निहायत ज़रूरी चिंतन के साथ आपको छोडे जा रहा हूँ ...............अबके ज़ल्द ही हाज़िरी दूंगा .......हो सकता हैं किसी कहानी या फिर छोटी - छोटी रचनाओं के साथ ...............आमीन ...................आपका इश्क़ .............

Tuesday 1 September, 2009

मेरी त्रयी - माँ अमृता

"प्रहरी हूँ तेरे आँचल का माँ ,पाषण में भी बसते हैं तेरे प्राण माँ"

अमृता प्रीतम मेरे लिए मेरे जीवन की "त्रयी" हैं .मेरी आत्मा-चेतना-संवेदना की त्रयी . मेरा उखड़ा हुआ बदतमीज़ स्वभाव ,बुध्धि जड़ और ह्रदय सूखा था .मैं दिन-रात महत्वाकांक्षा के ज्वर में जीवन से भीख मांग कर, एक महत्व हिन् भिखारी की तरह महलो के सपने पालता रहता ,सपने तो पल-पुसकर बड़े हो गए पर मेरा यह भिखारीपन अनवरत जारी रहा ........................मनोविज्ञान में इसे श्रेष्टता की ग्रंथि (सुपिरिअर्टी काम्प्लेक्स) कहते हैं . हकीकत को जानने समझने के लिए होशो-हबाश में रहना होता हैं .मन पर महत्वाकांक्षा हावी हो जाये तो हम और हमारी इन्द्रियां जीवन की त्रयी-त्रवेणी संवेदना-चेतना-आत्मा से किनारा कर लेते हैं मैं बहुत दिनों तक एसा ही करता रहा और शायद आज़-तलक . मैं आवारा था -मेरी समझ मैं आवारा होना तो सुफीओं का शग़ल हैं यह अधिकार तो कबीर ,मीरा ,जायसी जैसे संतों का हैं .तब तो निश्चित ही मैं आवारा नहीं गिरा हुआ ,लुच्चा ,लफंगा ,और बदमाश ( एल .एल .बी ) था . और इस पर दिलचस्प यह की मेरे घर और दुसरे तमाम लोग-बाग़ मुझे काफी पढने-लिखने वाला सीधा-साधा समझधार समझते रहे .........सोचता हूँ कैसी थी उनकी समझ और हां वार्षिक परीक्षा में ना सही अर्धवार्षिकी में मेरे नंबर अक्सर सर्वाधिक हुआ करते थे .अब देखिये न यह मेरा स्वभाव ही तो हैं कभी कभार थोडा बहुत मिला नहीं की अपने को सुप्रीम समझने लगे ..........और अर्धवार्षिकी से वार्षिकी तक आते-आते यह सूप्रीमेसी किसी और की गर्लफ्रेंड या सहेली बन जाया करती थी .हां अगली कक्षा ज़रूर फिर इस सूप्रीमेसी नामक गर्लफ्रेंड को पाने की हसरत से शुरू होती यह और बात हैं की यह हसरत कभी पूरी नहीं हुयी .............खैर खेल-कूद और मिठाई-सिठाई के बीच स्वर्गीय मुकेश साहब के गीत गुनगुनाते हुए स्वयं को मुकेश समझ कर यह गम भी हल्का कर लेते थे ..........बहुत कमीना होने के बाबजूद मैं अक्सर लाइब्रेरी जाया करता ,यह लाइब्रेरी शहर में कहीं भी हो सकती थी ,मैंने यहाँ क्यों जाना शुरू किया -नहीं मालूम पर नियम था जाने का जो कमबख्त टूटता ही न था ......यहाँ अखबारों और किताबों से मुलाकात हुयी .......किताबे इतनी अच्छी दिलकश गर्लफ्रेंड और उससे भी अच्छी हो सकती हैं यही आकर जाना .........अभी तलक तो स्कूल के प्रिंसिपल जैसी सिलेबस की किताबों का तज़ुर्बा था न यार .........पर अब प्यार हो गया किताबों से .इन प्यारी किताबों के बीच मेरा पापी मन धीरे-धीरे अपने पाप को कुबूल करने लगा था पर मै बेचैन था , क्यों था ? यह तो दिल ही जानता था और मैं पापी दिल से कहाँ रूबरू था .............. .............इसी तरह एक रोज़ किताब मिली "खामोशी के आँचल में" .दरअसल उफनती हुयी जवानी में ऐसे शीर्षक सोंधी मिटटी की खुशबु की तरह साँसों में समां जाते हैं ...................जब "खामोशी के आँचल" की छाव में हम बैठे तो अपने दिल से पहली मर्तबा , इमानदारी से रूबरू हुए .किताब पर नाम था अमृता प्रीतम ................................और आज मेरे दिल में नाम हैं माँ अमृता प्रीतम. तब से लेकर आज तक मेरे चेतन और अवचेतन मन ने कितने ही बदलावों को अपने अन्दर ज़ज्ब कर लिया हैं और यह प्रक्रिया निरंतर जारी हैं . अमृता प्रीतम और माँ अमृता प्रीतम मेरे जीवन के दो छोर हैं ,और अमृता प्रीतम से पहले का जीवन एक भटकता हुआ भ्रष्ट महत्वकांक्षी जीवन .........जो था भ्रष्ट मैं ही था ,जो था अस्त मैं ही था ,अंधियारे में मैं ही था ,सूर्योदय से बेखबर मैं ही था ,प्रातः प्रहर की म्रत्युशैया पर था मैं ,जीते जी एक लाश था ,चेतना से दूर जड़ता का बिन्दु ,सावन में सूखा ,भादो में मलिन ,चाँद-तारों की जगमगाहट के दरमियान अपने निज दुखों में तल्लीन ,अश्वों की दौड़ से आतंकित ,अपने ही गुरुर में गिरा हुआ ,तुच्छ ह्रदय ............नकारा .............तमाम दोष-दुर्गुणों के बीच मेरे जीवन ने फिर भी मुझे स्वीकारा ..............क्योंकि जीवन सदैव करुणावान हैं ...........यह माँ अमृता प्रीतम ने ही मुझे सिखलाया .............अमृता प्रीतम रूहानी ताकतों की रचनाकार हैं .........खासकर १९७० के बाद का उनका रचना-संसार ऐसा ही हैं की वे अपनी रचना-प्रक्रिया में पाठक को दिमागी तौर पर ही नहीं इससे बहुत ज़्यादा हद तक शामिल कर लेती है और फिर हर पाठक की अपनी अनुभूतियाँ हैं की वह रूहानी तौर पर अमृता जी से कितना राज़ी होता हैं .....और अनायास ही उनके साथ कितनी देर तलक बहता हैं ,बहता रहता हैं . इसी बहाव में संवेदना-चेतना-आत्मा की त्रयी आती हैं और यह त्रवेणी अंहकार के घाट से दूर एक निर्मल -पावन

त्रवेणी घाट पर आपका स्वागत करती हैं अब यह आप पर निर्भर करता हैं की आप कितनी देर तलक यहाँ ठहर पाते हैं ,मैंने आपसे शुरू में इसी दुर्लभ त्रयी का ज़िक्र किया ..............पर मैं यहाँ बहुत देर नहीं ठहर पाता ,अक्सर ही मेरा "मैं" मुझे रोक लेता हैं चलिए फिर कोशिश करते हैं . बहुत-बहुत शुक्रिया दोस्तों आप बहुत देर से मेरे साथ हैं ...............और ज़रूर आगे भी रहेगे ...............मैंने अपने ब्लॉग के माध्यम से ३१ अगस्त २००९ से ३१ अक्टूबर २०१० तक को आपके साथ अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व के रूप में जीने का ख़याल किया हैं आपके सुझाव सादर आमंत्रित हैं बल्कि ज़्यादा सच यह हैं की इस वर्ष-पर्व की तैयारी व् सफलता आपके ही हाथों में हैं .
                   बहुत साधुवाद !

Friday 28 August, 2009

अदला-बदली

वाणी जी के कहने पर असुविधाजनक तमाम शेड्स हटा दे रहा हूँ शुक्रिया वाणी गीत जी

  • खालिस चाहत

एक कहानी हैं जो कविता की तरह सुनानी हैं ,
सात बच्चे साथ-साथ खेलते-कूदते ,लड़ते -झगड़ते ,धमाचौकड़ी जमाते ,चिल्लाचौट करते ,
आपस में बचपन की अदला-बदली कर सबको हैरान कर देते हैं,
इन नन्हे-मुन्नों के बीच क्या रिश्ता हैं ? शायद बहुत नाज़ुक पर बेहद पुख्ता ,मज़बूत ,
खैर इस रिश्ते का कोई नाम नहीं ,हिंदी फिल्म के गीत की तरह -प्यार को प्यार रहने दो, कोई नाम ना दो ,



लता जी का एक और नगमा -बचपन की मोहोबत्त को यूँ ही ना भुला देना , 
जब याद मेरी आ जाए मिलने की दुआ करना ...................,
बच्चों  का जीवन हैं मस्ती ,जैसा भी हो जी लेते हैं ,
ये नन्हे नहीं जानते इनका नाम राम ,रहीम ,सलीम और श्याम ही क्यों रखा गया हैं ,
चाहे इनके घरो में मंदिर-मज्जिद के कितने ही किस्से-कहानियाँ क्यों ना दोहराए जाते हो ,या इनका कोई अंकल और पड़ोसी चौराहे का चर्चित नेता हैं ? ,
 ये तो अपने चौराहे पर खुद ही अपना सिक्का चलाते हैं ,
दिन में धूप और रातों में चांदनी को अपना दीवाना बनाते हैं ,
शाम इनसे बाते करती हैं ,और बचपन की अपनी लत को लेकर रोज़ रात से झगड़ा करती हैं ,रात को अक्सर इंतज़ार कराती हैं ,
बेक़रार रात भी तड़पती-मचलती हैं इन्हें अपने आँचल में लेकर पकियाँ देकर सुलाने के लिए ,
चांदनी चोरी से इन्हें चूमती हैं और खुद ही रंगीन ख्वाब सजाती हैं ,
नित्य नयी सुबह हर क्षण स्वागत को आतुर हैं इनके ,
धूप थोडी और कमसिन हो जाए गर ये नन्हे अपनी हरकतों को फ़लक तले आवारा छोड़ दे ,
 
पूरी-मस्ती ........
 
निश्छल बच्चे सोच रहे हैं
आज शाम को फिर से होले दोड़ा-दाड़ी,भागम-भागी धमाचौकड़ी मस्ती सारी चिल्ला-चिल्ला कर गायेगें अकडम-बकडम दही चटाका फिर गुप्ता जी के ठेले पर पानी-पूरी और ठहाका ,
फूलों से सुगंध चुराकर तितली रानी से बतियाये ,
कपडों की फुटबाल बनाकर बारिश में कही गुम हो जाए ,
भुट्टों की खुशबू की खातिर बरगद वाली अम्मा जी से घंटों तक यूँ ही बतियाये ,
 
 
..............और मनहूस बात
 
आहिस्ता से घर में इनके इनको कुछ सिखलाया हैं ,
राम ने आकर सलीम से नया पेंच लड़ाया हैं ,
बरगद वाली अम्मा ने बचपन को लुटते देखा हैं ,
गुप्ता जी के कानो में नया मसाला आया हैं ,
पानी-पूरी और तमाम ठहाके गुप्ता जी अब हुए पुराने ,
बचपन की खुशबू भरी बातें तितली रानी किसे बताये ,
फूलों में अब सुगंध कहाँ हैं भँवरा निर्वात में ही मंडराए ,
श्याम का लकी नंबर ७८६ ,और रहीम की कॉपी में लिखा था ॐ नमः शिवाय ,
अब सात घरो में बात हुयी हैं मज़हब की मर्यादा की ,
बीती पीड़ी के लोगो ने बचपन को समझाया कुछ ,
घर-घर का इतिहास रहा हैं बचपन का इंतकाल हुआ हैं ,
बचपन की वो अदला-बदली ,अकडम-बकडम सारी मस्ती भूल गए क्यों सारे बच्चे अभी तलक थे यार लंगोटिए ,
एक का मन दूजे में रमता ,कोई पिटता कोई रोता ,
शरबत की वो बोतल नीली एक चुराता सब पी जाते ,
कभी-कभी कोई पकडा जाता फिर वही अदला - बदली ,अकडम -बकडम सारी मस्ती भूल-भुलैया ,कभी नहीं कोई जान सका ये शरबत कोन चुराता था ?
 कहाँ गयी वो सारी मस्ती सुनी हो गयी इनकी बस्ती ,
बात अभी भी करते हैं पर बातों में बातों से ज़्यादा शक् की एक फुटबाल मिली हैं ,
कोई इधर मार कोई उधर मार
बचपन की फुटबाल नहीं हैं ,दिखती नहीं पर हैं तो भारी ,
अदला-बदली ,अकडम-बकडम,कपडों की फुटबाल कहाँ हैं ?
मज़हब की लाचारी हैं जीते पर जीवन को मज्जिद - मंदिर स लाते हैं
कितनी पोयम याद करी थी कसम लिटल-स्टार रविंद्रनाथ की खाते थे ,
कसम बनी हैं भगबान-खुदा अब मर जायेगें मार भी देंगे कृष्ण-कन्हैया ,इंशाल्लाह ,
कोन करेगा अदला-बदली ,अकडम-बकडम ,धमाचौकड़ी सारी मस्ती ....................यह शाश्वत प्रशन हैं हम सबका ..............कोन ?

Monday 10 August, 2009

प्रेमांचल - जीवन तेरा प्रेम हैं मेरा -३

प्रिय तेरे प्राणों में प्राण मेरे ,
तेरी सांसों की हलचल से कुछ छुअन हुयी हैं मेरे अंग में ,
भाव-भंगिमा ही बदल गयी हैं ,
कहती हैं सब लोक की नज़रे ,
दशों दिशाओं से आमंत्रण पर मेरा कुछ अधिकार नहीं हैं ,
मेरा हुआ यह भाग्य भी तेरा ,
इन सांसों का सोभाग्य यही हैं ,
यौवन की मधुशाला में जीवन-अमृत बरसे हैं ,
सुख की क्या मैं बात करूँ अब दुःख भी सच्चा लगा रे ,
मेरी शक्ती ,प्रेम-प्राण तुम ,जीवन का वरदान -ज्ञान तुम ,
काव्यशास्त्र की मेरे कविता ,मेरी स्रष्टी मेरी सरिता ,
प्रेमांचल में बांध लिया हैं मेर्री चंचल वृत्ति को ,
मैं ठहरा गौरी-शंकर का राहगीर ओ प्रियवती ,
माँ पार्वती की घौर तपस्या ,और शिव का यूँ ओगढ़ होना ,
जीवन में अब अर्थ हुआ हैं ,अर्धनारीश्वर का सोभाग्य मिला ,
अर्धान्गिनी बन जाओ जानम मेरे अंतर्मन लावण्य की ,
चंचल - चितवन यौवन मेरा प्रेम-पीपासु जीवन हैं ,
मंत्र -मुग्ध कर दो मुझको तुम काव्यशास्त्र की सूक्ती से ,
प्रेमशास्त्र से घायल कर दो मेरे तन मन यौवन को ,
अन्तर्मन की तुम्ही वेदना ,तुम्ही हो मेरी अखण्ड चेतना ,
जीवन का सोन्दर्य तुम ही हो ,ह्रदय का झंकार हो जानम ,
तुम से पहले कितनी बातें मैंने नभ से बोली हैं ,
यौवन की गुफाओं में रानी मन व्याकुल था मिलने को ,
प्रेमपाश में भर लो मुझको ,नई कविता सिखलाओं ,
जीवन के श्रम -संघर्षों को न्रत्यागना बन कर गाओ ,
कैसा भी व्यवधान हो नृत्य - साधना नहीं थमेगी ,
वीर पलों की अभिव्यक्ती अब खजुराहो में ही होगी ,
दशो -दिशाओं में हैं आमंत्रण ,वात्स्यान का कामशास्त्र अब जीवन का संस्कार बनेगा ,
क्यों भूल गए हम नाट्यशास्त्र को ,क्या यह सिर्फ इतिहास रहेगा ?
भरत-मुनि का नाट्य शास्त्र अब जीवन गौरव गान बनेगा ,
न्रत्यागाना बन जाओ जानम ,
भरत-वर्ष का प्रताप जागेगा ................................................

Saturday 8 August, 2009

मैं भी नेता जैसा ...........

इन दिनों मेरे मुल्क़ में किसान ,किसानी के अलावा खुदकुशी भी कर रहे हैं ,

..............................और हैं सियासी लोग यहाँ जो अब ज़िन्दगी के बाद मौत की भी सियासत करते हैं ,

चाहे हो मर्दाना याकि ज़नाना ज़िस्म उनका पर रुह से ये सियासतबाज़ हमको नपुंसक ही दिखते हैं ,

साठ लाख का एक-एक हाथी ,और अट्ठारह हज़ार क़र्ज़ किसान पर ,

मुल्क़ की तक़दीर यही हैं ,हम भी मल्टीनेशनल में जाब करते हैं ,

प्रेमचन्द्र की सालगिरह ,सावन जैसी सूखी-पाखी अभी निकल कर चली गयी ,

नाथूराम की मौत ने मुझको याद दिलाई प्रेमचन्द्र की ,वरना अरसा गुज़र गया हैं क्यों याद करू मैं प्रेमचन्द्र की ,

लिखते थे वे गल्प-कहानी पर मैं नहीं वैसा हिन्दुस्तानी ,

सर्विस-वर्विस करता हूँ मैं ,शादी-वादी बीबी-बच्चे ,इतना ही फ्यूचर देखा हैं ,अब करना हैं जुगाड़ मनी का ,

अरे भूल गया मैं तुम्हे बताना ,मेरे कांटेक्ट में भी हैं एक नेता (दरअसल नेता जी ),

उसकी थोडी अप्प्रोच लगेगी ,नाथूराम की ज़मीन मिलेगी ,

हाँ बदले में उनको पैसे भी दूंगा ,उसके भी बीबी-बच्चे हैं ,वो तो खुद मर कर चला गया ,

उनका फिर क़र्ज़ पटेगा ,ज़मीन का क्या हैं ,उनकी हो या मेरी ,

यह तो धरती माता हैं न , ऐसे ही संस्कार हैं मेरे ..........................

Friday 7 August, 2009

फ़ासला

सियासी तेवर से मोहोब्बत्त नही होती ,
गर हो जाए ,फिर सियासत नही रहती ,
ज़ालिम ये ज़िंदगी भी न जाने कैसे-कैसे ख्वाब दिखाती हैं,
मोहोब्बत्त का आशियाँ सियासत से सज़ाती हैं
सियासी गुरूर में न अश्क़ बहेगें ,न महबूब मिलेगा ,
ना ज़िस्म का सुरूर रूह की राह बनेगा ,
कैसे इश्क़ की आरज़ू अपने हुस्न् को थामेगी ,
लुट जाएगी तेरी माशूक़ तुझ पर ,
तू एक बार तो कह कह तो सही कि सियासत से मोहोब्बत्त नही मुमकिन ,
यूँ ही आहिस्ता-आहिस्ता मिट जाएगा तेरा गुरूर तेरे आशिक़ की रज़ा से ,
ज़ी भर ज़ी के देख ज़रा के "अल्लाह " के फ़ज़ल से कोई ज़िंदगी कभी तन्हा नही होती ..................,
थोड़े से अश्क़ हमे भी दे ज़ालिम ,के "इश्क़" मिट जाएगा तेरी खातिर ,
गर तुझे मिटने की कभी तमन्ना नही होती ..............

अपराधी

लगता हैं जीवन एक अपराध हैं ,
जो नित्य ही होता हैं ,
अगर मैं न चाहू तब भी ,
विश्राम में , सावधान में ,उत्तर में ,दक्षिण में ,पूरब ,पश्चिम में ,सभी दशो दिशाओं में ,
और हर तरफ अपराधी मैं ही हूँ ।
मेरे अपने स्वाभिमान में ,अपमान में ,जीवन की संगती या विसंगती में ....
शायद अपराध मेरी वृत्ति हैं ,सो मैं अपराधी हूँ ,
मेरे लिए यह कहना बहुत आवश्यक हैं की मैं अपने ही जीवन का अपराधी हूँ .............

Tuesday 28 July, 2009

फालतू कोना

कल वकील साब बतिया रहे थे हमारी अदालतों में पेंडिंग पड़े कोई तीन करोड़ मुकदमो के बारे में सो लगे हाथ मैंने पूछ मारा कि- टेलीविजन पर सच का सामना करने वास्ते बाबरी भीड़ को देख लगे हैं मानों हम सबों में हरिशचंद्र का खून आज तलक दोड़ रिया है मिया वकील साब ,पर समझ में नी आवे अदालत में गीता की कसम खाके हरिश्चंदों के ब्लड का हिमोग्लोबिन भला क्यों कम हो जावे , वकील साब बोले यार तुम इन्नोसेंसे में समझते नही हो , मैं बोलियो आप समझा दो नी कनिगनेस को तड़का मार के यारा ,, वी बोलिया दरअसल हमारी सबसे बड़ी तकनीकी दिक्कत ऐसी हैं कि सोसाइटी में कहने जैसी नही हैं ,मैंने की तुम और मैं ,वेरी अवे फ्रॉम द सोसाइटी ,ज़ल्दी बोलो ,कहने लगे सुनो अदालत के अंदर की बात हैं ,हम धर्मं निरपेक्ष हैं यही दिक्कत हैं ,मैंने कहा कैसे ,बोले ऐसे मैं आदित्य कुरान पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ जो भी बोलूगा सच बोलूगा ,और तुम आफ़ताब बाइबल पर हाथ रखकर खा लो ,अभी जानसन आवेगा तो गीता पर हाथ रखकर नी खावेगा क्या ?

...................................और अब एक पीड़ित व्यक्ती की सलाह
मालिक हम सभी को चार तरह के कोट से बचाए
अ । सफेद्कोट (डॉ )
ब। कला कोट (वकील साब )
स । खाकीकोट (पुलिस)
और ..............
द । पेटीकोट (का से कहूँ पीर जिया की ?)

और चलते - चलते बचपन में सुना चिट्कुला
दो दोस्त आदित्य और आफ़ताब ,एक गणित का अध्यापक और दूजा वकील काला कोट वाला ,
आपस में लड़ गए ,सच्चे दोस्त इसी तरह मचलते हैं ,एक ने कहा वकालत का कोई सानी नही ,
गणित की इज्ज़त का सवाल था भई - दूजा बोल पड़ा बिना गणित के तुम ,,झूठ कैसे बोलेगा ,कितना बोलेगा ,कब कब बोलेगा ,इतना सब कैसे याद रखेगा वकील साब ,
वकील साब गुस्से में बोले तुमने जितने गरीब बच्चो से पैसे लेकर tution
दी हैं मैं उस सब का अदालत में खुलासा करूंगा ,गणित वाला कहने लगा मैं उससे पहले तुम्हे कोष्टक में रखकर जेरो से भाग लगा दूंगा .......................................






माँ नर्मदा

हैं माँ आँचल में जीवन अमृत लेकर ऐसे कैसे बहती हो ,
साँझ सबेरे धूप ओड़कर नित्य दुखों से प्रसव वेदना सहती हो ?
आँचल में जीवन को बांधे हमको अमृत देती हो ,
और आप स्वयं नित्य दुखों की प्रसव वेदना पीती हो ।
हैं माँ आँचल में जीवन को बांधे ऐसे कैसे बहती हो ,
सदियों से ही इंसानी ज़ुल्म सितम सहती हो ?
बारिश में भीगा तेरा आँचल हम सबको अच्छा लगता हैं ,
पर कभी नही यह जाना - चाहा क्या तुझको अच्छा लगता हैं .............
हैं माँ सोन्दर्यमयी तुम शक्ती जगत की ,
हम सब को यह बात पता हैं ,
पर मेरे जीवन की चाहत में माँ तेरे जीवन का हाल बुरा हैं ...
तेरे तट पर किया बसेरा और तुझको ही डसता मैं ,
धरती पर वरदान हैं माँ तू ,
और मैं भस्मासुर इस धरती का ....,
कैसी कठिन कहानी हैं माँ तूने ही पाला पोसा हैं इस अभिशापी भस्मासुर को
जीवन के हर कठिन समय को तूने सरल बनाया हैं माँ ,
प्राणों ने मेरे चेतना प्रवाह तेरे आचल में पाया हैं
तेरा मेरा रिश्ता माँ इस स्रष्टि से भी पहले का ,
तूने ही तो मेरे जीवन को विष से अमृत बनाया हैं ,
प्राणों में मेरे तेरी पैठ हैं ,
तूने ही मुझको प्राण दिया ,फ़िर मैं क्यो तुझको भूल गया ,
चंचल हूँ अपनी वृत्ति से ,
आँचल को तेरे छोड़ दिया ,
रमा रहा हूँ अपनी ही अभिलाषा के उत्तेज़न में ,
जीवन बना व्यापार मुझे ,
हाय तेरे प्यार भरा आँचल क्यों छोड़ दिया ,
धंसता ही गया उस दलदल में , jaha तू मैली हो जाती हैं ,
मेरे अतीत का साया तू ,
माँ प्यार भरा हैं आँचल तू ,
जीवन हैं तू मेरा, प्राण हैं तू ,
तेरे आँचल अमृत से मेरी सांसों में यौवन छायाँ ,
यौवन मेरा ज्वाला हैं ,
तेरे प्राणों का स्नेह रक्त ,माटी में तेरी संकल्प मेरा ,
जीवन से अब ना भागूंगा ,
अब जीवन हैं तुझको अर्पण माँ ,
तेरा ही यह मेरा प्राण हैं ,
पश्चाताप का मेरा निवेदन ,
तू फ़िर मुझको माफ़ करेगी ,
बहुत थका चुका माँ तुझको ,
कृपा करो माँ मेरी मुझ पर ,
कुछ सेवा का अवसर दो ,
अयोग्य रहा हूँ जीवन भर मैं ,
कुछ योग्य बनू ऐसा सुख दो ,
बहुत सही माँ पीड़ा तुमने ,
अब तनिक ज़रा विश्राम करो ........
मैं श्रद्धा से तुमको नमन करूँ ,
जीवन को मेरे स्वीकार करो ...............................







Tuesday 21 July, 2009

सलाम - नमस्ते

लॉन्ग टाइम नो ब्लॉग्गिंग ,ख़बर -शबर ही नही हैं के कहाँ हूँ मैं ,कल ही मेरी माशूक दिलरुबा दोस्त ने बताया की अभी तो यहीं हूँ मैं ,पर थोड़े दिन और ब्लॉग पर नही आया तो ब्लॉग के साथ ही वो और मैं भी कही खो जाने वाले हैं । सो दोस्तों जय राम जी की ,सलाम -वालेकम ,सत् श्री अकाल ,एंड वैरी गुड आफ्टर नून एवेरी बड्डी ............दरअसल मेरी तरह अदने से आदमी की जिंदगी में भी छोटे -बड़े पेंच आ ही जाते हैं कमबखत । कब से सोच रहा था कि बरसू ,पर बादलों कि तरह सिर्फ़ garaz ही रहा था ,हाँ इन दिनों यहाँ भोपाल-vidisha में कुछ barish हुयी हैं ,सो अब sangat का असर हो रहा हैं ,मुझे भी अब surur आने लगा हैं ,पर आप देख रहे हैं यहाँ कुछ शब्द हिन्दी में नही आ paa रहे हैं ,खैर ........बहुत बार आपको बहुत कुछ करना होता हैं अपनी dilchaspi के khilaf ,और बहुत बार आप कुछ भी नही कर paate अपनी दिलchaspi की खातिर ,goया की internet aaspass और ब्लॉग्गिंग dur-dur .................khata जब हमने की तो उसकी सज़ा हमको मिली और वफ़ा की राह पर चलने , दोड़ने ,मुस्कुराने ,के लिए आपका दोस्त फ़िर हाज़िर हैं ..............बात पूरी हो जाती तो कुछ और बात थी ,चलिए ज़रा ध्यान से सुनिए -पदिये आप ,मैं आदित्य नामक युवक अब से आप से आदित्य आफ़ताब "इश्क " के नाम से रूबरू होता रहूँगा । दरअसल तेज़ी भागती इस दुनिया में हमने विकास के कई सोपान तय किए हैं ,पर हम अपने ही आप को जाने समझे बिना अपने ही आप से लड़ रहे हैं ,इनदिनों स्थानीयता ,भाषा ,धर्म .मज़हब ,संप्रदाय ,जाती को लेकर हम कुछ ज़्यादा कट्टर पंथी बनते जा रहे हैं ,किसी ने अपना नाम बताया नही की हम उसके धर्म-कर्म के विषय में चिंतित हो उठते हैं ,सो इस तरह के सामाजिक टेकेदारों की चिंताओं के निवारनआर्थ मैंने स्यम को किसी तथाकथित हिंदू ,मुस्लिम से जुदा कर इंसानियत और हिंदुस्तानियत के इश्क़ से सरोबार कर लिया हैं । -आदित्य आफ़ताब "इश्क़"

हिन्दुस्तान एक सतरंगी ग़ज़ल हैं दोस्तों ,इसे मोहोबत्त से गुनगुनाते रहिये .............

Friday 1 May, 2009

जीवन तेरा ,प्रेम हैं मेरा - 2

चलो अब उठ भी जाओ प्रिय ,

खुबसूरत सी यह सुबह ,मेरे साथ तुम्हारे जागने को प्रतीक्षारत हैं ,

देखों अब करवटें ना बदलों ,

रात के साथ जिस्म की थकान भी ढल चुकी है जानम ..........................,

मेरी तरह दिलकश रात भी जैसे तुम्हें आगोश में भर लेने को मचलती हैं ,

मेरी जान यह सुंदर सुहानी सुबह भी बतिया रही हैं कि तुम्हारे अंतस ,तुम्हारी आत्मा से शबनम रात भर में तुम्हारे जिस्म पर उग आई हैं ,ये हमारे प्यार की निशानी हैं ,

उठो और मेरे साथ ,सुंदर मन भावन सुबह के साथ ,अपने जिस्म पर खिलते हुए आत्मा के सोंदर्य को निहार लो ........................,

प्रिय ये शबनम की बूंदें कदाचित प्रेमशास्त्र का अदभुत काव्य हैं ,

उठो आओ ,सुंदर सुबह को साक्षी मान साथ-साथ इस अदभुत आत्म-सोंदर्य की परिक्रमा करे ,

तुम्हारे बदन पर शबनम ,शबनम नही हमारे प्रेम का ताप हैं जानम ,

जीवन का उत्कर्ष यही हैं ,

दाम्पत्य का संयोग यही हैं ,

यही हैं बिन बांधें का बंधन ,

जो अनायास ही बंधता जाए ,

शादी ब्याह ,कोर्ट -कचहरी यह तो सब संघर्ष की बातें ,

जीवन तेरा प्रेम हैं मेरा ,यह तो स्यम स्वतंत्र ही बढता जाए ,

खैर ,कहाँ पहुच गया मैं जानम ...............,

चलो अब उठ भी जाओ .........................................................

Sunday 19 April, 2009

शांती संदेश

आरम्भ करो आव्हान करो ,ओ पथ के प्रहरी ,हैं लोकतंत्र एक महायुद्द , हाँ जीवन इसमे अपना कुछ बलिदान करो ,थको नही तुम ,रुको नही तुम ,बड़े चलो ,
हो जो भी शत्रु लोकतंत्र का ,शिव बनकर उसका संहार तुम ,
नेता जो तुम्हे सताता हैं ,वोट मांगने आएगा
चाहे मुख से कुछ कहो न कहो ,पर परिवर्तन का वोट चुनो ,
हो दुविधा जब भी मन में कि एक सापनाथ हैं ,एक नागनाथ हैं किसको मैं सरकार चुनू
ना इसे चुनो ना उसे चुनो
बन जाओ अर्जुन ,श्री कृष्ण चुनो
हाँ संविधान का बंधन हैं ,पर तेरे स्वर में भी दम हैं ,
हैं पथ के प्रहरी ,जीवन हैं तेरा जीने को जी भर के जी ले इसको
पर देख ज़रा मात्रभूमि की छाती में खुनी खंज़र इस भ्रष्ट तंत्र के
कुछ जीवन अपना तू ,माँ को दे ,दे ,
उसका ही यह प्राण हैं तेरा ,
तो उठा धनुष बन कर अर्जुन ,कि शिव का हैं वरदान तुझे और कृष्ण सदा तेरे साथ रहे ,
दुर्योधन अभी मरा नही हैं ,शकुनी हैं चालक बड़ा ,
ध्रतराष्ट्र का सामंतवाद धरती पर इतना फ़ैल चुका ,कि अब आकाश को भी लील रहा ,
और इस अन्धें का छल तो देखों ,कि तुझको भी यह साध रहा ,
अब बजा शंख और लोकतंत्र का वाण चला ,जाने दे सामंतवाद के सीने में ,
होगी थोडी तो कठिनाई उसको यहाँ फ़िर जीने में ,
यह शत्रु बड़ा भयंकर हैं -पर वीर नही हैं तो कायर छलता हैं तुझको तेरी ही अपनी शक्ती से
हैं पथ के प्रहरी धीर धरो ,अपनी शक्ती को पहचानो ,कुछ करतब एसा दिखलाओ कि ,
सामंतवाद के पहिए को चलने में कुछ तो अड़चन हो ,
ना इधर देख ,ना उधर देख ,हो निडर खड़ा ,धनुष चडा और वाण चला ,
इन सामंती संतानों पर ,सत्ता के पैरोकारों पर ,
भ्रष्टाचार की छाह में ज़न्मी सामंती संतानें हैं ये ,
सच्चाए की धुप में आख़िर कब तक टिक पाएंगी ये गंदी नस्लें ,
सीने में तेरे जवानी हैं ,शत्रु भ्रष्ट-खानदानी हैं ,
ना प्रश्न् पूछ ना उतेर दे ,संवाद का युग तो बीत गया ,
tu वाण नही अब आग चला
कि भ्रष्टाचार तो जल ही जाए सच्चाई के अग्नी में ,
बन महापुरुष ,कर महाप्रलय कि शिव हैं वरदान तुझे , कृष्ण सदा तेरे साथ रहे
अब ब्रह्म्मास्त्र की बारी हैं ,धरती तेरी आभारी हैं .......................................


प्रेमांचल: जीवन तेरा ,प्रेम हैं मेरा

प्रेमांचल: जीवन तेरा ,प्रेम हैं मेरा

Thursday 16 April, 2009

जीवन तेरा ,प्रेम हैं मेरा

तेरे आँचल की खूश्बू में थोडी थोडी धूप घुली हैं ,

आँचल में एक टुकडा मेरा तेरे अंतस का पारस पत्थर ।

बारिश में जब तुम भीगी ,बारिश रूककर देख रही थी ,

भीग गयी थी वो भी जालीम तेरे सावन -भादों में ,

यौवन की जब झड़ी लगी थी ,नदिया सी तू मौन खड़ी थी ,

कामदेव के जतन वो सारे कहने को थे कितने प्यारे ,थका थका सा जीवन मेरा ,

बारिश में बारिश से पहले भीग गया में तेरे अंदर , रिमझीम बारिश देख रही थी

प्रेमशास्त्र के नए काव्य को ,नया नही हैं प्रेम सनातन ,शाश्वत हैं सोंदर्य का दर्पण ,

मैं कहता हु तो सुन लो जानम ,लावण्यामई तुम प्रीत हो मेरी ,

भरत मुनी के नाट्य शास्त्र सी ,

कथा ,कहानी ,और कविता ,खजुराहो का कामशास्त्र भी ,

जीवन नित चन डोल रहा हैं ,मन मयूर बन नाच रहा हैं ,

न्रत्यांगना बन जाओ जानम ,बादल कब से तरस रहा हैं ,

बारिश में तुम और तुम्हारी नृत्य साधना और तपेगी ।

कामशास्त्र और योगशास्त्र की दूरी सचमुच और घटेगी ..............

थोडी सी और ...............

शराफत से शराब पीने हमारे घर चले आए ,सड़े पानी की ना जाने कितनी बाटली खाली हुयी होंगी ।

बहकती आंखों से ,कांपते हांथों ने ,तड़पते जिस्म को ,आखरी बाटल के बाटम तक न्योछावर कर दिया ,इतना समर्पण जिस्म में अल्कोहल जाने के बाद ही आता हैं पर अफ़सोस सिर्फ़ अल्कोहल का बुखार ख़त्म होने तलक ।

दोस्तों होश में जीना कठिन हैं ,सचचाई को छुपा लेना इंसान की ज़रूरत हैं ,अन्तःतः बेहोशी का आलम दिल ,दिमाग और जिस्म की ज़रूरत बन गया हैं ।

बेहोशी के कुछ पल ,होश में ठोकरे खाकर ,आड़ी-तिरछी जिंदगी जीने से कही ज़्यादा बेहतर लगते हैं । आत्मा सच्चाई की पूंजी मांगती हैं ,और जिस्म थोडी सी शराब ,अन्तःतः हमारे मन को बेहोशी का यह फलसफा भा जाता हैं । फ़िर खुशी हो या गम ,सब अल्कोहल के करम ,ज़श्न्न में भी शराब ,और मातम में भी , । ज़श्न्न में एक एक घूंट के साथ जिंदगी को जी लेने का यकीं और और पुख्ता होता जाता हैं - और मातम में आत्मघाती बन अंहकार का सुख -सर्वोत्तम सुख ,स्यम को मिटाने का सुख । कोई इश्क में मिटता हैं , कोई भक्ती में ,और हम शराब में ,

मिट गए हम एक एक बोतल में ,अल्लाह को तो नही पता ,पर ख़ुद को ही प्यारी हैं ये कुर्बानी । जिद अपनी दुनिया बदलने की भी होती हैं ,पर यह जिद हैं अपनी दुनिया मिटाने की । बेहोशी का फलसफा और जिस्म की ये आग ,अब नही बुझेगी अल्कोहल की प्यास ,ज़ाहिर हैं ये प्यास बड़ी हैं । हाय रे अल्कोहल ,अनाथ मन को नाथ मिल गया ,अल्कोहल का विश्वास मिल गया ।

पाप करो ,पुण्य करो और जीवन का त्याग ,सबसे उत्तम साधना अल्कोहल की राग ।

जय शिवाला ,पीले एक और प्याला ।

महाकवि नीरज याद आते हैं -

चुप चुप अश्रु बहाने वालो ,जीवन व्यर्थ लुटाने वालो कुछ सपनो के मर जाने से ,जीवन कहाँ मरा करता हैं

Friday 23 January, 2009

तेरे होने का अहसास

मैं जानू अहसास नया जो तेरे अन्दर चलता है



जीवन की वे बातें तुमसे जो शाम सवेरे हो जाती है



मुझको तो वरदान लगे है



मन सागर मंथन जैसा है



कैसे कह दूं कोई कविता ,



हाँ तुझ तक शब्द पहुचते हैं



पर तेरे आँचल मैं जाकर के वे



तेरे ही हो जाते हैं ।



ना ओर दिखे ना छोर दिखे



मुझे शब्दों की ना कोई डोर दिखे



कैसे पकडूं उन शब्दों को जो जीवन के हो जाते हैं



जो जीवन से भी प्यारे है



मन सागर मंथन जैसा है



अच्छी बुरी वे बातें सारी



जो तेरे स्वर मैं हो जाती है



मुझको तो वरदान लगे हैं



मन सागर मंथन जैसा है



कैसे लिख दूं प्रेम तुम्हे मैं



जो पाती मैं लिख हूँ प्रेम अगन में जल जाती हैं



इन बातों का इतिहास नया हैं



तुम जैसे चाहो बन जाएगा



पर मुझको इतना बतला दो तुम



कैसे जीता इतिहास बिना मैं जो ये वर्तमान में ना घटता



घटनाओं का क्या है जानम



जब घट जाए तब घट जाए ,कब घट जाए



पर तेरे मेरे जीवन की यह अमीत कहानी



ना इतिहास नया हैं ना प्रीत नयी हैं



यह बात पुरानी



तुम मेरे जीवन की आवाज़ पुरानी



तुम मेरे ह्रदय की हो प्यास पुरानी .......................................



































Wednesday 7 January, 2009

भेडिया धसान

"मेरा भारत महान हैं " यह सुनने पड़ने में अच्छा लगता हैं -अरे भई अच्छा हैं ही - और जो ऐसा नही मानता
हम उसे देशद्रोही कहेंगे । दोस्तों मैंने फैसला किया हैं देशद्रोही हो जाने का -दरअसल मुझे अपने वतन से बेइन्तहा
मुहुब्बत्त हैं । सवाल यह हैं की हम कब तलक झूठा झूठा महान भारत चिल्लाते रहेंगे ........
हम वो दिन याद हैं जब मुल्क के मशहूर शायर ने लिखा
"मज़हब नही सिखाता आपस मैं बैर रखना "
पर दोस्तों अक्सर आजाद मुल्क में कई कई सारे गुलाम ख्याल पनपने लगते हैं और हमारा दुर्भाग्य हैं कि हम इस
गुलामियत से सीखने भी लगते हैं , हाल ही के दिनों हमने सीखा हैं
"मज़हब हमें सीखाता तस्लीमा नसरीन को मुल्क से रफा दफा करना "
और मुल्क की सियासत जो अवाम की कभी परवाह नही करती ,ने भी इस मसले पर ना सिर्फ़ गौर फ़रमाया बल्कि अपने वोट बैंक का पूरी तरह ख्याल किया ।
"तस्लीमा उतनी ही हमारी हैं जितना की मुल्क में मोजूद कोई मज़हब "
मोजूदा हालात में मैं इस्लाम की रह पर चलने वाले तमाम बाशिंदों के चरणों में सजदा करता हूँ और एक सवाल
उठाता हूँ - क्या आप जानते हैं तस्लीमा और उनके लेखन के बारे में जिसकी की सज़ा उन्हें दी जा रही हैं ?
जब ख्यात लेखिका के खिलाफ फतवे दर फतवे जारी किए जा चुके थे -और ढाका , कोलकाता ,जयपुर ,नई दिल्ली और पूरे मुल्क में कोई संवेदना नही दिखाई दी ,आख़िर क्यों ? दरअसल इस क्यों का जबाब किसी ने नही
देना चाहा क्योंकि हम सब भेडिया धसान हैं -अपनी बुद्धि का प्रयोग नही करना चाहते ,ना ही अपने दिल की
आवाज़ सुन पा रहे हैं । उन मोलवियों ,धर्मगुरुओं ,जो स्यम काम कुंठित हैं और अपनी बेटी और पोती जैसी
महान सानिया मिर्जा के जिस्म को नापते हैं ,के बहकावे में आ जाते हैं । दोस्तों अगर हम ऐसे ही सोते रहेंगे
आजाद मुल्क में गुलाम ख्याल इसी तरह पनपते रहेंगे । सानिया के बहाने यह गहन आत्म मंथन और शोध का विषय हैं की नवयोवनाओं एवं महिलाओं के यौवन और सोंदर्य को निहारकर लम्पट पुरूष क्योंकर आतंकित
हो जाते हैं एवं प्रायः यह सोचते पाए जाते हैं की अब हमारी संस्कृति का क्या होगा । दरअसल परदा प्रथा की
वकालत करने वाला कोई भी लम्पट पुरूष {इससे फर्क नही की वह किसी मज्जिद का काजी हैं याकि मन्दिर का
पुजारी }औरत की स्वतंत्रता se इतने भयाक्रांत हैं की उसे अपने पुरूष वर्चश्व पर खतरा महसूस होने लगा हैं।
और फ़िर उसे या तो फतवे बनाने होते हैं या वह उसे इतने पीछे धकेल देना चाहता हैं की उसके बिस्तर पर उसके
जिस्म की आवशयकता मात्र रह जाए , और बात यही ख़त्म नही होती अब तो technology से गर्भ में ही आने
वाली नस्ल की हत्या कर दी जाती हैं । घौर आश्चर्य -बहुत सी सर्प्निया इन लम्पतो का साथ निभाती पाई जाती
हैं मानो सात फेरो में से एक यह भी था । यह पतिव्रताएं अपने देवता को प्रस्संं करने वास्ते अपनी ममता और
नारित्त्व की बलि कन्या भ्रूण हत्या कर ऐसे देती हैं मानो गर्भ निर्धारण का यही लक्ष्य था ।
दरअसल यही भेडिया धसान हैं ,जहा तमाम इन्सान एक चाल में भेड़ियों की मानिंद धसते जा रहे हैं बिना सोचे
समझे । बिडम्बना हैं की यह भेडिया धसान हमें विरासत में मिली हैं ।
बहुत से तो यह भी नही जानते तस्लीमा हैं कोन ,पर फ़िर भी विरोध किए जा रहे हैं ।
पूछिये इनसे "लज्जा" क्या हैं ? ये ख़ुद ही लज्जित हो जायेगे .......
वाह रे भेडिया धसान ! कट्टरपंथियों की नज़र में तस्लीमा गुनाहगार हैं क्योंकि उन्होंने कुछ सच लिखा -जो एक
सच्चे अदीब को महसूस हुआ । खैर इन भेड़ियों kई और कितनी कहे ......
पर मुल्क की सियासत को समझना चाहिए की उसने तस्लीमा नसरीन का नही , हमारी संस्कृति .सभ्यता .और साहित्य का अपमान किया हैं । और सिर्फ़ तस्लीमा ही नही हमारी सनातन परम्परा को देश निकाला दिया गया
हैं । हैं माँ सरस्वती हमें ज्ञान का प्रकाश दे । खुदा हाफिज़ दोस्तों ......




प्रेमांचल

"प्रहरी हु तेरे आँचल का माँ, पाषण में भी बसते हैं तेरे प्राण माँ "

Tuesday 6 January, 2009

याददाश्त

रतज़गे की आदत मुझको बचपन से तो नही ,

बस यूँ ही जागता रहता हूँ इनदिनों

सच तो ये हैं अब सोने कि कोई चाहत ही नही

हा मुझे याद हैं एक बार रात के सन्नाटे में सुनी थी एक चीत्कार

चेतना के पार महाचेतना कि झंकार

पर ना जाने क्यों मेरे यौवन ने वहां जाने से कर दिया इंकार

सोचता रहा हूँ रातों रातों ,सिर्फ़ उस एक रात की बात

दिल की तड़प अकेली थी उस वक्त

वक्त का वो दौर ........................... .............................

अब कौन दोहराएगा ...........

Sunday 4 January, 2009

क्योंकि देश आजाद हैं ..........वंदे मातरम

"अपना भविष्य वहां तलाशिये जहाँ कोई सम्भावना ना हो "
महान लेखक की अबूझ पहेलीनुमा यह पंक्तियाँ आज के जलते वर्तमान पर बादल बनकर बरस रही हैं ,जबकि
आज इन्सानिअत हम से आव्हान कर रही हैं थोड़ा सा इन्सान बन जाने के लिए और तरस रही हैं उन मूल्यों के
जो कि मरे नही ,मारे गए जा रहे हैं किसी कट्टरपंथ के वहशीपन में जहाँ से सिर्फ़ फिरकापरस्ती ही जन्म लेती हैं
असल में लहूलुहान होती हैं इन्सानिअत और इस लहू से बनती हैं मज़हब की गन्दी परिभाषा जिसे सीखते हैं
हमारे अपने बच्चे ,और जिसे बाजारू बनाते हैं धरमों के तथाकथित पैरोकार ..................
दोस्तों ये दिल बेकरार हैं साल मुबारक कहने के लिए ,पर यकायक ये २००८ मेरे ह्रदय प्रदेश में धंस सा गया
हैं "मानो मुझे भविष्य वहां तलाशना हैं जहाँ कोई सम्भावना ना हो "
२००८ एक एसा साल जिसने आतंकवाद को मेरे मन में एक लाइलाज बीमारी की तरह स्थापित कर दिया हैं
बिलाशक मसलें और भी हैं पर आप भी सहमत होंगे कि तमाम समस्याएँ अपने -अपने स्वरुप में एक जैसी नही
होती और आतंकवाद एक ऐसा ही मसला हैं जो मोजूदा दूसरी समसियाओं मसलन आर्थिक मंदी ,पर्यावरण ,जल
संकट से पूरी तरह जुदा हैं और इस अर्थ में भी कि व्यवाहरिक द्रष्टि से किसी भी राष्ट्र के लिए दहशतगर्दी का समूल विनाश मुमकिन ही नही क्योंकि यह सिर्फ़ पड़ोसी मुल्क में

बदस्तूर जारी प्रशिक्षण शिविरों या हथियारों में ही नही बल्कि इससे कहीं ज़्यादा इंसानी जेहन में पैठ कर चुका हैं ,आतंकवाद एक विशेष प्रकार के खासकर इस्लामी युवा वर्ग कि जीवन शैली बन चुका हैं । वह उनकी विचारधारा बन चुका हैं । और फ़िर आतंकवाद विभिन्न विचार प्रकियाओं में मोजूद हैं यथा राज ठाकरे की उत्तेर भारतियों

के प्रति हिंसा ।

दरअसल आज आतंकवाद की समस्यां से हमारा वर्तमान जल रहा हैं तो भला भविष्य किस तरह महफूज़ रह
सकता हैं । यह समझ से परे हैं कि आज तलक क्यों कर आतंकियों के खिलाफ देश में ही नही वरन पूरी
दुनिया में आम सहमती नही बन पा रही हैं । जिस तरह आतंक विभिन्न स्वरूपों में मोजूद हैं तो लाजिमी हैं
कि उसका खत्म विभिन्न प्रकिरियाओं से गुज़र कर ही सम्भव हैं । जब हमें पता है कि पाकिस्तान में कई सारे प्रशिक्षण शिविर मोजूद हैं तो क्यों उन्हें खत्म करने के बजाए दूसरे गैर ज़रूरी विकल्पों को तलाश रहे हैं और यह मसला जस का तस् बना हुआ हैं । अब तो इस्राइली उदाहरण सामने हैं । और जिस अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान और फ़िर इराक में खुले आम इन्सानिअत का कत्लेआम किया हो उससे किसी प्रमाण कि आवशयकता ही क्या । गौरी चमड़ी के गुलाम ख्याल से निजात पाने का यह एक और अच्छा अवसर हैं । अन्यथा तो सभी अपने अपने स्वार्थ साधते रहे और इन्सानिअत के वर्तमान को इसी तरह ज़लने दे , सभी नपुंसक बनकर खामोशी से अपने अपने बिल में दुबके रहे । घटनाओं के बाद उन पर राजनीती करे ,मीडिया फौरी सक्रियता दिखाए अवाम अपने अपने घर परिवारों की सरहद में उलझी रहे और यह दुष्चक्र इसी तरह चलता रहे .........................हा मुंबई हमलों के बाद ज़रूर मीडिया ने अवाम के गुस्से को तवज्जो दी पर अंतोगत्वा हम क्या कहीं आगे बड़े जबकि आतंकी अपनी ताकत रोज़ बड़ा रहे हैं । यहाँ तो जैसे पड़ोसी को मानाने में आंतंकवाद ठंडे बसते में चला गया हो ! पाकिस्तान नंगा नाच करता रहे , ज़रदारी आग उगले ,गिलानी अमन के शब्दों को चबाता रहे ..........................मेरे जैसा हर आमोखास आज सवाल कर रहा हैं आख़िर कब तक .........और कब तलक सहे हम ? यदि हमें कूटनीति ही करनी हैं तो उसकी आधारशिला अमेरिकीपरस्ती तो नही ही होनी चाहिए -क्योंकि देश आजाद हैं ....................जय हिंद
  • वंदे मातरम

Saturday 3 January, 2009

प्रेमचंद्र का जौवन

रोटी को तोड़कर उसका निवाला बनाकर ,

फिर नमक से लगाकर प्याज़ के साथ खालीं उसने ऐसे ही कोई साडे तीन बासी रोटियां

बासी रोटी खाकर खिलता उसका ताज़ा यौवन .............................................

ताजगी और खुशी के बीच उसने अपनी जेब से निकाले कोई साडे तेरह रुपए

साडे तेरह - अठन्नी तो अब चलती नही , रह गया हे सिर्फ़ उसका ख्याल ही ...........

अठन्नी में उलझा उसका युवा चंचल मन संचय की हमारी परम्पराओं में रम सा गया

जैसे कोई योगी राम धुन मन रम जाए

उसका योगी मन साडे तीन रुपये को पेंट की चोर जेब में ,जो कि उसका

सेविंग अकॉउंट भी हैं में खिसका देता हैं

अब बाकि के दस रूपए का इन्वस्मेंट घर के दूध और मेले कपड़े धोने वास्ते साबुन की टिकिया के लिए
दरअसल उसके घर में वह सबसे छोटा हैं ,फ़िर भी के रोज़ रात की तरह माँ दिनभर के खर्चे को लेकर और बाबूजी
अपनी शराब को लेकर झगडा ना करे इसीलिए वह ....................................