Wednesday 20 April, 2011

पी लू .........तेरी नज़र से बस एक मुठ्ठी ज़ी लू

पिके मय का प्याल मै बदनाम हुआ- बेहोश हुआ ,धीरे धीरे आँखों से घूँट घूँट भर लेने दो,
ज़िस्म तड़पता हैं मेरा ,मेरे यौवन को रोने दो, सांसों में उलझा हैं जीवन ,
इन साँसों को थम जाने दो,,
एकाध  दफा तो यारो अब शमशान में भी सो जाने दो।।।।।।।।।।।।।।।। 
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Saturday 16 April, 2011

चलो कि फिर से रावन दहन कर आये.......

वैसे मेरी इतनी औकात नहीं की मैं मनु जोसेफ  के बारे में कोई टिप्पणी करूँ. फिर जैसे की स्टुडेंट लाइफ में एक सो- काल्ड दुःख हुआ करता हैं कि एक्साम में कुछ सवाल आउट ऑफ़ सेलेबस पूछे गए ,उसी तरह पोस्ट-स्टुडेंट लाइफ का सो- काल्ड सुख हुआ करता  हैं अपनी औकात और हैसियत के बाहर जाकर कुछ काम और बात करने का.  तो बात यह हैं कि मनु सच्चे  सक्षम ,और संभावनाशील पत्रकार हैं, ऑफ-बीट जर्नलिस्म के लिए जानी जाने वाली पत्रिका ओपन के सम्पादक हैं.(मनु के बारे में मैं जो भी बोलू वह ऐसा ही हैं जैसे महारथी अर्जुन  के बारे में कोई अनाड़ी योध्धा )
 कुछ लोग होते हैं जो मीडिया की सुर्खियाँ बनते हैं- बनाते हैं.इस बार अन्ना हज़ारे टॉप कर गए. 
तीस साल से कम के महेंद्र भाई जी  धोनी हो या सत्तर पार के हज़ारे साहब मीडिया में सम्भावनाये सभी के लिए हैं. नो नीड टू  बी फ्रसटेड . मेरा नंबर भी आएगा ,इसी उम्मीद के सहारे तो अपुन टाइप भाई लोग ज़ी रहे हैं सभी. खैर "विषय से भटक जाना मेरी फ़ितरत हैं "- यह जाने-माने पत्रकार रविश जी का डायलोग हैं. अपुन भी फोल्लो कर गए. काश! रविश कुमार को कर पाते . देखिये फिर मत केना ,वो सुरु में ही बता दिया था .......आउट ऑफ़ औकात बगेरह ......चलिए तो अब मैं अपनी औकात पर उतरु . यह कतई ज़रूरी नहीं कि गंभीर मसले पर बातचीत से पहले उसकी भूमिका भी गंभीर हो. दरअसल यह सिर्फ मेरा नहीं हमारी सरकार भी रवैया हैं.और आज से नहीं पिछले ४२ सालो से ...कई सरकारे आई - गई पर लोकपाल विधेयक नहीं आ सका और जब सरकार से लोकपाल को साकार करने कि माग उठी तो उसने ४२ साल पुराने वही कागज़ (लोकपाल विधेयक प्रारूप)निकाल लिए जिन्हें सरकार ने कभी भी  रद्दी से अलावा और कुछ नहीं समझा . और हकीकत भी यही हैं जी हां सरकार का लोकपाल वाकई महज़ एक कोरी ओपचारिकता हैं,कि अगर यह प्रस्ताव पास हो भी जाए तो इस लोकपाल कानून के आधार पर कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ कोई इबारत नहीं लिखी जा सकती. जाहिर हैं बात हैं सरकार खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों कर मारेगी. तो अब सरकार ने ऐसा कुछ इंतजाम कर दिया कि जो कुल्हाड़ी पिछले ४२ सालो में नहीं बन पायी उसे अगर बनाना भी पढ़े तो उसकी धार बोथरी कर दो. कहने कि ज़रुरत ही नहीं कि सरकार ने ऐसा ही किया भी. कुल्हाड़ी अभी बनी नहीं हैं और दरअसल यही अन्ना हज़ारे के लोकप्रिय आमरण अनशन का आधार हैं कि कुल्हाड़ी बने पर धारदार बने,वैसी नहीं जैसी सरकार चाहती हैं ,बल्कि वैसी जो जनता और लोकतंत्र के हित में हो . अन्ना हज़ारे ने मायूस चेहरों पर ख़ुशी की एक किरण ....और ऐसे एक एक कर असंख्य किरणे फैलाई दी है. हज़ारे की गतिविधियाँ और ड्राफ्टिंग कमेटी ,जन लोकपाल का मसोदा ,सर्कार के लोकपाल का प्रारूप ,वगेरह अन्य तकनिकी मसलों पर पहले ही काफी कुछ पढ़ा सुना और लिखा जा चुका हैं,और लिखा जा रहा हैं. मानसून सत्र तक यह सम्पादकीयों का प्रिय विषय रहेगा ,रहना ही चाहिए.  यहाँ मुझे आपसे दो तरह की बात करनी हैं, एक जो महोदय मनु जोसेफ साहब ने इस आन्दोलन को लेकर कही और लिखी हैं ,और दुसरे क्या वाकई जन लोकपाल इतना ज़रूरी हैं,और इतना मज़बूत कि भ्रष्टाचार ९०% ,जैसा कि अन्ना कह रहे हैं,ख़त्म हो जाएगा. पहले जोसेफ महोदय क्या बतिया रहे हैं, कान थोडा उधर करते हैं. महोदय के लेख का शीर्षक हैं- द अन्ना हज़ारे शो , मसलन ये कोई आन्दोलन नहीं बल्कि प्रदशन मात्र हैं, अंग्रेजी का शो शब्द अपने आप में नकारात्मक हरगिज़ नहीं ,किन्तु महोदय जोसेफ ने लेख के अंत में हमें बताया हैं कि कैसे कोई दस वर्ष पूर्व  महाराष्ट्र के एक गाँव में जहाँ मीडिया को आने-जाने में ख़ासी तकलीफ़ हो रही थी, पत्रकारों के साथ म्यु चुअल अंडर स्टेंडिंग स्थापित  कर अन्ना ने  अपना अनशन समाप्त कर दिया था. जब आप वाकई अच्छे इंसान और सच्चे पत्रकार होते हैं ,मनु जोसेफ की तरह साहस दिखाते हैं. टेस्ट क्रिकेट कि कोई ऐसी पारी जो तकनिकी द्रष्टि से उत्तम ,अतिउत्तम,और उत्क्रत्तम हो ज़रूरी नहीं कि सभी क्रिकेट-खेल प्रेमियों को पसंद आये ही . बहुत संभव हैं ऐसी पारी ज़्यादातर लोगो को उबाऊ लगे. लोगो को चोके छक्के चाहिए ,दे दनादन,इस वर्ल्ड कप का थीम सोंग भी कुछ ऐसा ही था दे घुमा कर,यहाँ वीरेंदर सहवाग टाइप खिलाडी पसंद किये जाते हैं,भले कोई वी वी एस लक्ष्मण सदी कि सबसे महान पारी खेले या राहुल द्रविड़ द वाल बनकर क्रिकेट कि किताब का हर शोट किताब के मुताबिक ही क्यों न खेले. टेस्ट क्रिकेट कम ही देखा जाता हैं. धूम आईपी एल ,वनडे और टी-ट्वेंटी की होती हैं. अन्ना हज़ारे मीडिया के साथ मिलकर फटाफट क्रिकेट खेल रहे हैं, और जोसेफ महोदय विशुद्ध टेस्ट संस्करण के लोप से चिंतित दिखाई दे रहे लगते हैं.और देश कि जनता को यह अन्ना का यह फटाफट खेल बहुत पसंद आया ,तभी तो जो युवा, कप्तान धोनी के साथ हैं,बिना देर किये अन्ना के साथ हो लिए.  महोदय जोसेफ को चिंता हैं अन्ना के तौर-तरीको को लेकर. मीडिया और अन्ना के अग्रीमेंट को लेकर.निसंदेह अन्ना का तरिका विशुद्ध गांधीवादी नहीं कहा जा सकता. पर फटाफट क्रिकेट ऐसे ही होता हैं रन बन्ने चाहिए ,फिर वो कैसे भी बने. और टेस्ट क्रिकेट का अपना एक तरिका होता हैं,कि खेल होगा तो खेल के तमाम नियम कायदे के साथ. पर वीरेंदर सहवाग जैसे खिलाडी जो भी क्रिकेट खेले अपने मुताबिक खेलते हैं चाहे तो टेस्ट मेच हो,वनडे या फिर टी-ट्वेंटी. , और अन्ना जन लोकपाल के ऐसे ही वीरेंदर सहवाग है. मनु जोसेफ को अन्ना का खेल पसंद नहीं. दरअसल वो टीपिकल टेक्निकल कमेंट्रेटर हैं. जो अन्ना के खेल पर अपनी टिप्पणी करने से नहीं चुकते. पर सच पूछा जाय तो कहना होगा इस मेच का असली खिलाड़ी तो मीडिया हैं. कल्पना कीजीये अन्ना का अनशन ज़ारी हैं,और उन्हें कोई मीडिया कवरेज़  नहीं मिलता,तो ये तमाम हिन्दुस्तानी जो कल तक सिर्फ क्रिकेट और कप्तान धोनी के फेन थे अन्ना के मुरीद कैसे होते भला . यहाँ एक बात साफ़ तौर पर समझ लेनी हैं कि भले अन्ना और मीडिया परस्पर सहयोगी रहे हो, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जो शुरूआती माहोल बना वो देश के हित में बना . भले ही वीरेंदर सहवाग कैसे भी शोट खेले ,जो तकनिकी द्रष्टि से कमजोर हो,बिना फुटवर्क  के हो, पर वो जब खेलते हैं ,टीम को लाज़बाब शुरुआत देते हैं,अन्ना ने भी यही किया. हां अगर मेच फिक्स हो तब ज़रूर उनकी खिलाफ़त होनी चाहिए. पर जिस तरह महोदय निर्भीक पत्रकार हैं,अन्ना भी एक महान देशभक्त हैं. यहाँ दो बातो ने ज़रूर दिल दुखाया हैं, एक तो जोसेफ महोदय ने लेख समाप्त कर दिया पर जन लोकपाल के विषय में अपनी दूरद्रष्टि से हमें वंचित रखा ,और अन्ना जिन्हें जन लोकपाल समिति में स्यम शामिल नहीं होना चाहिए था ,खुद पंचरत्न होने पहुच लिए. समिती से बाहर होते तो उनका कद वाकई बहुत बढ़ जाता. असल में अब कोई गाँधी नहीं होता सिर्फ गाँधी होने का भ्रम देता हैं. क्या वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में में ऑफ द मेच चुने गए महान सचिन को वह पुरुष्कार खेल भावना के अनुरूप ,उस मेच में वाकई सबसे बेहतर खेल दिखने वाले पकिस्तान के तेज़ गेंदबाज़ वाहिद रियाज़ को नहीं देना चाहिए था .जबकि सचिन खुद जानते हैं छह जीवन दानो से युक्त वह ८५ रन कि पारी उनके जीवन कि सबसे अच्छी पारी नहीं थी.ऐअसा करते तो सचिन और अन्ना दोनों किवदंती बन जाते.पर अब तो सिर्फ गाँधी का भ्रम ही शेष हैं. खैर यह भरम ही बहुत हैं. अब मैं  अपनी दूसरी और अंतिम बात करता हूँ -क्या वाकई अन्ना सच बोल रहे हैं कि जन लोकपाल ९० फीसदी भ्रष्टाचार समाप्त कर देगा. यहाँ कुछ चीज़े स्पस्ट होनी ही चाहिए ,एक तो यह सिर्फ शुरुआत हैं,काफी ज़बरज़स्त धमाकेदार ओपनिंग. अन्ना ने अभी सिर्फ वीरेंदर सहवाग का रोल निभाया हैं एक उम्दा ओपनिंग देकर. अब बारी टीम वर्क कि हैं,और अन्ना कि टीम भले ही बिखरी न हो पर बहुत एकजुट हैं,इसमें संदेह हैं .सहवाग के अलावा टीम को तकनिकी द्रस्ती से लेस लक्ष्मण ,द्रविड़,और सचिन,जहीर,हरभजन  भी चाहिए. और टीम के रूप में चाहिए,एकजुट. अन्ना जब अनशन पर बैठे थे और जब प्रेस कांफ्रेंस में .दोनों जगह कुछ अंतर था. प्रेस कांफ्रेस में अन्ना हज़ारे कि वह गांधीवादी द्रष्टि देखने को नहीं मिली जिसके लिए वे (खासकर महाराष्ट्र में ) जाने जाते हैं. उनका यह कह देना कि जन लोकपाल से इतना उतना फीसदी भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा ,बिलकुल ही सतही स्तर का बयान हैं. जन लोकपाल अपने किस रूप में कानून बनकर सामने आता हैं यह अलग मसला हैं बात वाही हैं- सरकार कि बोथरी कुल्हाड़ी बनाम जनता कि धारदार कुल्हाड़ी. सरकार और दूसरी राजनितिक पार्टिया  इतनी आसानी से समर्पण नहीं करने वाली. पर यहाँ यह समझना ज़रूरी हैं कि भ्रष्टाचार सिर्फ एक क़ानून बना देने से समाप्त नहीं होता ,इसलिए अन्ना के यह द्रष्टि बहुत उथली और सतही द्रष्टि लगती हैं जब वह कहते हैं इतना और उतना प्रतिशत .यह गांधीवादी  द्रष्टि हरगिज़ नहीं. गाँधी ने हमें सिखाया हैं कि भ्रष्टाचार कि लडाई अपने अंदर से ,अपने आप  से ज़्यादा लड़नी होती हैं.  और यह लडाई जितनी राजनितिक होती हैं,उससे ज़्यादा सामाजिक,और उससे भी कही ज्यादा मनोवैज्ञानिक . पहले खुद को सफाई ज़रूरी हैं. अन्ना स्यम जानते हैं कि उनके अनशन में जो जन समूह उम्दा हैं उनमे कई ऐसे भी दुकानदार हैं जो अपनी दुकानदारी भ्रष्टाचार कि बिना पर ही चलते रहे हैं.गोया कि रावन मारने सब राम लीला मैदान तक जाते हैं .....पर अपने अंदर के राम लीला मैदान में रावन और और बड़ा होता जाता हैं .इस सभ्य समाज में अन्ना के अनशन के दौरान ही काम कुंठा से ग्रसित बद्तामीजो ने एक २० बर्षीय युवती को दो बार बलात्कार किया ,इनमे उस युवती का रिश्तेदार भी शामिल रहा हैं. जनसँख्या के आंकड़े सामने हैं.और पंजाब हरियाणा राजस्थान में कई जगह १००० लडको पर ७८० लड़कियां. और जनसँख्या का शीर्ष स्तर छुते देश को अपने बाघों ,जंगलों,नदियों,अन्य वन्य जीव,और पर्यावरण को बचाने में  सिर्फ कुछ गिने चुने व्यक्ति और संस्थाए सामने आती हैं. क्या यह हमरे ही समाज का दोगला चरित्र नहीं  हैं ??????? क्या इसके खिलाफ किसी आन्दोलन की ज़रुरत नहीं हैं. वो तो साहब ये नेता इतने भ्रष्ट हैं की इनके खिलाफ कोई भी आवाज़ बुलंद करे ,हम उसका साथ देगे ही .पर इसका यह अर्थ कतई नहीं हैं अन्ना या जन लोकपाल बिल देश को ९० फीसदी भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला देगा. यह लडाई बहुत लम्बी हैं और आम आदमी के लिए दिल्ली अभी भी उतनी ही दूर हैं. जन लोकपाल का स्वागत हैं ,अन्ना बढ़ायी और बधाई के सच्चे हकदार हैं पर किसी क़ानून की सीमओं को उस व्यक्ति को समझना चाचिए जो स्यम गाँधी के रस्ते चलने का प्रयास और दावा कर रहा हो . और हां अंत में फिर से क्रिकेट के बहाने की अन्ना और उनकी टीम को समझना चाहिए की यह कोई टी-ट्वेंटी या वनडे गेम नहीं असल टेस्ट क्रिकेट  हैं, ओपनिंग भले ही फटाफट क्रिकेट की तर्ज़ पर शानदार रही हो पर आगे असल टिक्कड़ खिलाडी ही चल पायेंगे . इस नज़रिए से महोदय मनु जोसेफ आदरणीय हैं. और उम्मीद करते हैं की भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मेच में वे भी अन्ना और साथी खिलाडियों के साथ नज़र आयेगे . आपके आलोचक आपके सच्चे सहायक व् प्रशंशक होते हैं अन्ना को अपने आलोचकों से बचना नहीं चाहिए ,बल्कि गांघी की तरह उनका स्वागत करना ही होगा . कबीर याद आते हैं निंदक नियरे राखिये .............आँगन कुटी छवाये बिन पानी बिन साबुना ,निर्मल करे स्वभाव. ..............

Tuesday 12 April, 2011

निकम्मापन और सेक्स ............

समुन्दर अभी अच्छा ख़ासा दूर हैं ,(समुंद्री) कछुआ धीरे-धीरे अपनी मंजिल की तरफ रेंग रहा हैं,
 क़ुदरत की पाठशाला में धैर्य का महापाठ पढ़ाने वाला धरती का सबसे बड़ा टीचर - 
धीर गंभीर यह रहस्यमयी  प्राणी बेहद बारीक सी  हरकते-हलचले करता हुआ अपने एक मात्र हुनर ऐतबार और इत्मिनान के साथ अनेक  सपने बुन रहा हैं........
चल कहा रहा हैं रेंग रहा हैं स्याला ????//// ये कोई इंसानी आवाज़ हैं...........
दरअसल कछुए का हुनर और इत्मिनान आदमी की ज़ात और औक़ात के बाहर की बात हैं. 
फास्ट फ़ूड खाकर सुपर फास्ट हो जाना ये हमारा मिजाज़ हैं.......
और ज़ल्दी इतनी हैं क़ि कमरे का दरवाज़ा लगाते ही बाथरूम का गेट खोलना  पढता हैं .... 
लगे हाथ पत्नी और प्रेमिका क़ि तरफ़ से  रिमार्क मिलता हैं -"जाओ  साफ़ होकर आओ और करवट दूसरी और लेकर ज़हंनुम में जाओ............."
जंक फ़ूड दिमाग में जंग लगा देते हैं.....और फिर हम हम नहीं निकम्मे हो जाते हैं ........
जैसे मैं हो  गया हूँ............
निकम्मापन या तो पस्त होकर जिंदगी को अस्त करना चाहेगा या खालिस खयाली पुलाव.........
अरे भई फास्ट फ़ूड के आलावा कैलोरी और भी तो चाहिए......
और यु ही निकम्मेपन का अनवरत क़ारोबार चलता रहता हैं........
इससे कही बेहतर हैं नपुंसक हो जाना !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
हैरान हूँ पर निकम्मे आदमी को ऐसे ही विचार आते हैं...........और यह एक पुख्ता विचार हैं......
आपसे  क्या छुपाना कल उसने  कहा .......अब तुम्हे सोचना - महसूस करना एक कड़वा स्वाद हैं .....किस -विस करने पर कड़वापन और बढेगा और फिजिकल हो जाना तौबा-तौबा .............नपुंसक आदमी अयोग्यता के बाबजूद बिस्तर तक पहुच जाता हैं .........पर निक्कमे आदमी के लिए दरवाज़ा ही बंद हैं .....................कछुआ अभी समुन्दर से  बहुत दूर हैं पर हैं जीवंत उसकी उम्मीदों के साथ  और मैं दरवाज़े के बाहर .............वर्तमान के साथ भविष्य भी स्वाहा ......... वो भूतकाल  के आलिंगन और चुम्बन ...........!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!


Sunday 10 April, 2011

मैं अन्ना हज़ारे नहीं .........

         स्याला नमक हरम कही का मैं ..............मक्कार ,धोखेबाज़,पाखंडी................ 


दो वक़्त की रोटी बिना मेहनत के मुझे पाखंडी और निकम्मा बनाती हैं. 
मेरे जीवन की पाखण्ड-प्रिय हरकते ,घोर टुच्चा आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व ,
अहम् को वो तमाम सलवटे ,जिनसे में बरसो से मैं पाखण्ड मथता आया हू,
और बहुत भ्रमित सी वह सुरक्षा - जिसे मैं परिवार की सरहद में महसूस करता हूँ 
दरअसल मुझे जीवनपर्यंत अपने घर से और अपने आप से भी जुदा कर देने पर आमदा हैं ...........
यह सामाजिक और घरेलु सुरक्षा मेरी लाइफ़ की विलेन हैं. बहुत बड़ा एक भ्रम हैं ...............
घर की इन चार दिवारी के बीच में कब भगोड़ा बन गया .........जान नहीं पाया हूं.......
निश्चित ही भगोड़ा बनना मेरी नियति और मंजिल नहीं हैं ........
पर वर्तमान यही हैं की मैं भगोड़ा हूं ,,,,,,,,,,,,,,निक्कम्मा ..............कमीना .................नमक हराम और घोर पाखंडी हूँ..........
एक मैं हूँ और एक वे हैं अन्ना हज़ारे ...............महाराष्ट्र का गाँधी अब मुल्क़ का गांधी बन रहा हैं .........संभवतः बन गया हैं............
और मैं पाखंडी बन गया हूँ...........दरअसल भ्रष्टाचार और पाखंड के खिलाफ़ बाहर के अलावा भीतर से भी लड़ना पड़ता हैं .............
और पाखंड,निकम्मापन  बस यही नहीं करने देता ............वो कहते हैं न बिल्ली का गू .........ना लीपने का ना पोतने का 
ऐसा ही हूँ मैं भी ............क्या आप मुझे वोट देंगे ???????????????????????