Friday 25 July, 2014

उधेड़बुन

उधेड़बुन 

मैं मज़दूर हूँ -- सांसारिक बाधाएं पग पग पर हैं ..मेरी मुफ़लिसी दीवारे बना भी रही हैं और गिरा भी रही हैं...मैं अपनी मुफ़लिसी में रिश्तों और दोस्ती की न जांच-पड़ताल करता हूँ -न ज़िंन्दगी के किसी सिरे को पकड़कर उससे बही-खाते का कोई हिसाब ही ले पाता हूँ...अगर कही कोई ज़िम्मेदारी बनती हैं तो मेरे ओछेपन और मेरे निकम्मे निर्णयों की. मैं अब भी मानता हूँ रिश्तेदारी की तरह दोस्ती धन ,बल और समय सापेक्ष नहीं होती .. मेरा .कोई भविष्य नहीं हैं .दोस्त रहेंगे ही . शायद मुझे किसी नरक मैं प्रवेश पाते हुए देखते रहने के लिए........... अतीत पर गर्व नही पर . पर अहसास हैं अपनी जड़ों का .और मेरी जड़ें किसी पैतृक सत्ता का आव्हान नहीं करती . न किसी मातृक स्थिति में ही मेरी कोई रूचि हैं. मेरी विचार प्रकिया कथित सोलह संस्कारों , देवताओं , ईश्वरों और धर्मों को जीवन का अभिवाज्य अंग नहीं मान पाती.......जड़ों से तात्पर्य अपने बनने , न बनने और बनते -बनते बिगड़ जाने भर से हैं ...मेरा वर्तमान कुत्ते की तरह वफ़ादार - और निर्दयी हैं. समाज उसे निर्मम मृत्यु देना चाहता हैं........मैं जानता हूँ मैं अपने वर्तमान को अकाल मृत्यु से नहीं बचा पाउगा पर वर्तमान के साथ मृत्यु को भी भोग लेना चाहता हूँ........जीवन तब शर्मिंदा नहीं होगा. मैं आज भी दोस्तों की दुआओं और बद्दुआओं का भिक्षुक हूँ--------------मित्रों मेरी झोली अब भी खाली हैं........और एक बात... मेरे वयस्क होने के बाबजूद मेरे फैसले अवयस्क रह गए ...

शिकवा नहीं बेदर्दों तुम्हारी उल्फ़त हैं----

बकौल ताहिर फ़राज़ "
दोस्ती तेरे दरख्तों में हवाएँ भी नहीं ,दुश्मनी अपने दरख्तों में समर रखती हैं.
और कैसे मानू की ज़माने की खबर रखती हैं ,
गर्दिशे-इ-वक़्त तो बस मुझ पर नज़र रखती हैं...
सफरमाना मेरा जारी नहीं हैं मगर हिम्मत अभी हारी नहीं हैं ..
धूप मुझको जो लिए फिरती हैं सायें-सायें हैं तो आवारा पर ज़हन में घर रखती हैं....

और मेरे पैरो की थकन रूठ न जाना मुझसे एक तू ही तो मेरा राज - इ- सफ़र रखती हैं...."