Friday 23 January, 2009

तेरे होने का अहसास

मैं जानू अहसास नया जो तेरे अन्दर चलता है



जीवन की वे बातें तुमसे जो शाम सवेरे हो जाती है



मुझको तो वरदान लगे है



मन सागर मंथन जैसा है



कैसे कह दूं कोई कविता ,



हाँ तुझ तक शब्द पहुचते हैं



पर तेरे आँचल मैं जाकर के वे



तेरे ही हो जाते हैं ।



ना ओर दिखे ना छोर दिखे



मुझे शब्दों की ना कोई डोर दिखे



कैसे पकडूं उन शब्दों को जो जीवन के हो जाते हैं



जो जीवन से भी प्यारे है



मन सागर मंथन जैसा है



अच्छी बुरी वे बातें सारी



जो तेरे स्वर मैं हो जाती है



मुझको तो वरदान लगे हैं



मन सागर मंथन जैसा है



कैसे लिख दूं प्रेम तुम्हे मैं



जो पाती मैं लिख हूँ प्रेम अगन में जल जाती हैं



इन बातों का इतिहास नया हैं



तुम जैसे चाहो बन जाएगा



पर मुझको इतना बतला दो तुम



कैसे जीता इतिहास बिना मैं जो ये वर्तमान में ना घटता



घटनाओं का क्या है जानम



जब घट जाए तब घट जाए ,कब घट जाए



पर तेरे मेरे जीवन की यह अमीत कहानी



ना इतिहास नया हैं ना प्रीत नयी हैं



यह बात पुरानी



तुम मेरे जीवन की आवाज़ पुरानी



तुम मेरे ह्रदय की हो प्यास पुरानी .......................................



































Wednesday 7 January, 2009

भेडिया धसान

"मेरा भारत महान हैं " यह सुनने पड़ने में अच्छा लगता हैं -अरे भई अच्छा हैं ही - और जो ऐसा नही मानता
हम उसे देशद्रोही कहेंगे । दोस्तों मैंने फैसला किया हैं देशद्रोही हो जाने का -दरअसल मुझे अपने वतन से बेइन्तहा
मुहुब्बत्त हैं । सवाल यह हैं की हम कब तलक झूठा झूठा महान भारत चिल्लाते रहेंगे ........
हम वो दिन याद हैं जब मुल्क के मशहूर शायर ने लिखा
"मज़हब नही सिखाता आपस मैं बैर रखना "
पर दोस्तों अक्सर आजाद मुल्क में कई कई सारे गुलाम ख्याल पनपने लगते हैं और हमारा दुर्भाग्य हैं कि हम इस
गुलामियत से सीखने भी लगते हैं , हाल ही के दिनों हमने सीखा हैं
"मज़हब हमें सीखाता तस्लीमा नसरीन को मुल्क से रफा दफा करना "
और मुल्क की सियासत जो अवाम की कभी परवाह नही करती ,ने भी इस मसले पर ना सिर्फ़ गौर फ़रमाया बल्कि अपने वोट बैंक का पूरी तरह ख्याल किया ।
"तस्लीमा उतनी ही हमारी हैं जितना की मुल्क में मोजूद कोई मज़हब "
मोजूदा हालात में मैं इस्लाम की रह पर चलने वाले तमाम बाशिंदों के चरणों में सजदा करता हूँ और एक सवाल
उठाता हूँ - क्या आप जानते हैं तस्लीमा और उनके लेखन के बारे में जिसकी की सज़ा उन्हें दी जा रही हैं ?
जब ख्यात लेखिका के खिलाफ फतवे दर फतवे जारी किए जा चुके थे -और ढाका , कोलकाता ,जयपुर ,नई दिल्ली और पूरे मुल्क में कोई संवेदना नही दिखाई दी ,आख़िर क्यों ? दरअसल इस क्यों का जबाब किसी ने नही
देना चाहा क्योंकि हम सब भेडिया धसान हैं -अपनी बुद्धि का प्रयोग नही करना चाहते ,ना ही अपने दिल की
आवाज़ सुन पा रहे हैं । उन मोलवियों ,धर्मगुरुओं ,जो स्यम काम कुंठित हैं और अपनी बेटी और पोती जैसी
महान सानिया मिर्जा के जिस्म को नापते हैं ,के बहकावे में आ जाते हैं । दोस्तों अगर हम ऐसे ही सोते रहेंगे
आजाद मुल्क में गुलाम ख्याल इसी तरह पनपते रहेंगे । सानिया के बहाने यह गहन आत्म मंथन और शोध का विषय हैं की नवयोवनाओं एवं महिलाओं के यौवन और सोंदर्य को निहारकर लम्पट पुरूष क्योंकर आतंकित
हो जाते हैं एवं प्रायः यह सोचते पाए जाते हैं की अब हमारी संस्कृति का क्या होगा । दरअसल परदा प्रथा की
वकालत करने वाला कोई भी लम्पट पुरूष {इससे फर्क नही की वह किसी मज्जिद का काजी हैं याकि मन्दिर का
पुजारी }औरत की स्वतंत्रता se इतने भयाक्रांत हैं की उसे अपने पुरूष वर्चश्व पर खतरा महसूस होने लगा हैं।
और फ़िर उसे या तो फतवे बनाने होते हैं या वह उसे इतने पीछे धकेल देना चाहता हैं की उसके बिस्तर पर उसके
जिस्म की आवशयकता मात्र रह जाए , और बात यही ख़त्म नही होती अब तो technology से गर्भ में ही आने
वाली नस्ल की हत्या कर दी जाती हैं । घौर आश्चर्य -बहुत सी सर्प्निया इन लम्पतो का साथ निभाती पाई जाती
हैं मानो सात फेरो में से एक यह भी था । यह पतिव्रताएं अपने देवता को प्रस्संं करने वास्ते अपनी ममता और
नारित्त्व की बलि कन्या भ्रूण हत्या कर ऐसे देती हैं मानो गर्भ निर्धारण का यही लक्ष्य था ।
दरअसल यही भेडिया धसान हैं ,जहा तमाम इन्सान एक चाल में भेड़ियों की मानिंद धसते जा रहे हैं बिना सोचे
समझे । बिडम्बना हैं की यह भेडिया धसान हमें विरासत में मिली हैं ।
बहुत से तो यह भी नही जानते तस्लीमा हैं कोन ,पर फ़िर भी विरोध किए जा रहे हैं ।
पूछिये इनसे "लज्जा" क्या हैं ? ये ख़ुद ही लज्जित हो जायेगे .......
वाह रे भेडिया धसान ! कट्टरपंथियों की नज़र में तस्लीमा गुनाहगार हैं क्योंकि उन्होंने कुछ सच लिखा -जो एक
सच्चे अदीब को महसूस हुआ । खैर इन भेड़ियों kई और कितनी कहे ......
पर मुल्क की सियासत को समझना चाहिए की उसने तस्लीमा नसरीन का नही , हमारी संस्कृति .सभ्यता .और साहित्य का अपमान किया हैं । और सिर्फ़ तस्लीमा ही नही हमारी सनातन परम्परा को देश निकाला दिया गया
हैं । हैं माँ सरस्वती हमें ज्ञान का प्रकाश दे । खुदा हाफिज़ दोस्तों ......




प्रेमांचल

"प्रहरी हु तेरे आँचल का माँ, पाषण में भी बसते हैं तेरे प्राण माँ "

Tuesday 6 January, 2009

याददाश्त

रतज़गे की आदत मुझको बचपन से तो नही ,

बस यूँ ही जागता रहता हूँ इनदिनों

सच तो ये हैं अब सोने कि कोई चाहत ही नही

हा मुझे याद हैं एक बार रात के सन्नाटे में सुनी थी एक चीत्कार

चेतना के पार महाचेतना कि झंकार

पर ना जाने क्यों मेरे यौवन ने वहां जाने से कर दिया इंकार

सोचता रहा हूँ रातों रातों ,सिर्फ़ उस एक रात की बात

दिल की तड़प अकेली थी उस वक्त

वक्त का वो दौर ........................... .............................

अब कौन दोहराएगा ...........

Sunday 4 January, 2009

क्योंकि देश आजाद हैं ..........वंदे मातरम

"अपना भविष्य वहां तलाशिये जहाँ कोई सम्भावना ना हो "
महान लेखक की अबूझ पहेलीनुमा यह पंक्तियाँ आज के जलते वर्तमान पर बादल बनकर बरस रही हैं ,जबकि
आज इन्सानिअत हम से आव्हान कर रही हैं थोड़ा सा इन्सान बन जाने के लिए और तरस रही हैं उन मूल्यों के
जो कि मरे नही ,मारे गए जा रहे हैं किसी कट्टरपंथ के वहशीपन में जहाँ से सिर्फ़ फिरकापरस्ती ही जन्म लेती हैं
असल में लहूलुहान होती हैं इन्सानिअत और इस लहू से बनती हैं मज़हब की गन्दी परिभाषा जिसे सीखते हैं
हमारे अपने बच्चे ,और जिसे बाजारू बनाते हैं धरमों के तथाकथित पैरोकार ..................
दोस्तों ये दिल बेकरार हैं साल मुबारक कहने के लिए ,पर यकायक ये २००८ मेरे ह्रदय प्रदेश में धंस सा गया
हैं "मानो मुझे भविष्य वहां तलाशना हैं जहाँ कोई सम्भावना ना हो "
२००८ एक एसा साल जिसने आतंकवाद को मेरे मन में एक लाइलाज बीमारी की तरह स्थापित कर दिया हैं
बिलाशक मसलें और भी हैं पर आप भी सहमत होंगे कि तमाम समस्याएँ अपने -अपने स्वरुप में एक जैसी नही
होती और आतंकवाद एक ऐसा ही मसला हैं जो मोजूदा दूसरी समसियाओं मसलन आर्थिक मंदी ,पर्यावरण ,जल
संकट से पूरी तरह जुदा हैं और इस अर्थ में भी कि व्यवाहरिक द्रष्टि से किसी भी राष्ट्र के लिए दहशतगर्दी का समूल विनाश मुमकिन ही नही क्योंकि यह सिर्फ़ पड़ोसी मुल्क में

बदस्तूर जारी प्रशिक्षण शिविरों या हथियारों में ही नही बल्कि इससे कहीं ज़्यादा इंसानी जेहन में पैठ कर चुका हैं ,आतंकवाद एक विशेष प्रकार के खासकर इस्लामी युवा वर्ग कि जीवन शैली बन चुका हैं । वह उनकी विचारधारा बन चुका हैं । और फ़िर आतंकवाद विभिन्न विचार प्रकियाओं में मोजूद हैं यथा राज ठाकरे की उत्तेर भारतियों

के प्रति हिंसा ।

दरअसल आज आतंकवाद की समस्यां से हमारा वर्तमान जल रहा हैं तो भला भविष्य किस तरह महफूज़ रह
सकता हैं । यह समझ से परे हैं कि आज तलक क्यों कर आतंकियों के खिलाफ देश में ही नही वरन पूरी
दुनिया में आम सहमती नही बन पा रही हैं । जिस तरह आतंक विभिन्न स्वरूपों में मोजूद हैं तो लाजिमी हैं
कि उसका खत्म विभिन्न प्रकिरियाओं से गुज़र कर ही सम्भव हैं । जब हमें पता है कि पाकिस्तान में कई सारे प्रशिक्षण शिविर मोजूद हैं तो क्यों उन्हें खत्म करने के बजाए दूसरे गैर ज़रूरी विकल्पों को तलाश रहे हैं और यह मसला जस का तस् बना हुआ हैं । अब तो इस्राइली उदाहरण सामने हैं । और जिस अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान और फ़िर इराक में खुले आम इन्सानिअत का कत्लेआम किया हो उससे किसी प्रमाण कि आवशयकता ही क्या । गौरी चमड़ी के गुलाम ख्याल से निजात पाने का यह एक और अच्छा अवसर हैं । अन्यथा तो सभी अपने अपने स्वार्थ साधते रहे और इन्सानिअत के वर्तमान को इसी तरह ज़लने दे , सभी नपुंसक बनकर खामोशी से अपने अपने बिल में दुबके रहे । घटनाओं के बाद उन पर राजनीती करे ,मीडिया फौरी सक्रियता दिखाए अवाम अपने अपने घर परिवारों की सरहद में उलझी रहे और यह दुष्चक्र इसी तरह चलता रहे .........................हा मुंबई हमलों के बाद ज़रूर मीडिया ने अवाम के गुस्से को तवज्जो दी पर अंतोगत्वा हम क्या कहीं आगे बड़े जबकि आतंकी अपनी ताकत रोज़ बड़ा रहे हैं । यहाँ तो जैसे पड़ोसी को मानाने में आंतंकवाद ठंडे बसते में चला गया हो ! पाकिस्तान नंगा नाच करता रहे , ज़रदारी आग उगले ,गिलानी अमन के शब्दों को चबाता रहे ..........................मेरे जैसा हर आमोखास आज सवाल कर रहा हैं आख़िर कब तक .........और कब तलक सहे हम ? यदि हमें कूटनीति ही करनी हैं तो उसकी आधारशिला अमेरिकीपरस्ती तो नही ही होनी चाहिए -क्योंकि देश आजाद हैं ....................जय हिंद
  • वंदे मातरम

Saturday 3 January, 2009

प्रेमचंद्र का जौवन

रोटी को तोड़कर उसका निवाला बनाकर ,

फिर नमक से लगाकर प्याज़ के साथ खालीं उसने ऐसे ही कोई साडे तीन बासी रोटियां

बासी रोटी खाकर खिलता उसका ताज़ा यौवन .............................................

ताजगी और खुशी के बीच उसने अपनी जेब से निकाले कोई साडे तेरह रुपए

साडे तेरह - अठन्नी तो अब चलती नही , रह गया हे सिर्फ़ उसका ख्याल ही ...........

अठन्नी में उलझा उसका युवा चंचल मन संचय की हमारी परम्पराओं में रम सा गया

जैसे कोई योगी राम धुन मन रम जाए

उसका योगी मन साडे तीन रुपये को पेंट की चोर जेब में ,जो कि उसका

सेविंग अकॉउंट भी हैं में खिसका देता हैं

अब बाकि के दस रूपए का इन्वस्मेंट घर के दूध और मेले कपड़े धोने वास्ते साबुन की टिकिया के लिए
दरअसल उसके घर में वह सबसे छोटा हैं ,फ़िर भी के रोज़ रात की तरह माँ दिनभर के खर्चे को लेकर और बाबूजी
अपनी शराब को लेकर झगडा ना करे इसीलिए वह ....................................