Saturday, 3 January 2009

प्रेमचंद्र का जौवन

रोटी को तोड़कर उसका निवाला बनाकर ,

फिर नमक से लगाकर प्याज़ के साथ खालीं उसने ऐसे ही कोई साडे तीन बासी रोटियां

बासी रोटी खाकर खिलता उसका ताज़ा यौवन .............................................

ताजगी और खुशी के बीच उसने अपनी जेब से निकाले कोई साडे तेरह रुपए

साडे तेरह - अठन्नी तो अब चलती नही , रह गया हे सिर्फ़ उसका ख्याल ही ...........

अठन्नी में उलझा उसका युवा चंचल मन संचय की हमारी परम्पराओं में रम सा गया

जैसे कोई योगी राम धुन मन रम जाए

उसका योगी मन साडे तीन रुपये को पेंट की चोर जेब में ,जो कि उसका

सेविंग अकॉउंट भी हैं में खिसका देता हैं

अब बाकि के दस रूपए का इन्वस्मेंट घर के दूध और मेले कपड़े धोने वास्ते साबुन की टिकिया के लिए
दरअसल उसके घर में वह सबसे छोटा हैं ,फ़िर भी के रोज़ रात की तरह माँ दिनभर के खर्चे को लेकर और बाबूजी
अपनी शराब को लेकर झगडा ना करे इसीलिए वह ....................................



No comments:

Post a Comment