Thursday 17 September, 2009

आग, अंगारे ..........और आक्रोश

अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व में हम सभी का स्वागत हैं . दोनो कान पकड़कर माफ़ी माँगता हूँ - ब्लॉग-लेखन का कुछ नियम तो होना ही चाहिए . ओर ऐसी कोई मज़बूरी या बहाना नही सुनाना चाहिए जिसे आगे  कर हम पीछे से बचकर निकल जाए -पर साथ ही सभी ब्लॉगर साथियों को मेरे जैसे होनहार बेरोज़गार अनाड़ी को एक बारगी तो माफ़ ज़रूर ही कर देना चाहिए -ओर फिर मैं वैसे भी योग्यता में तो सबसे छोटा ही हूँ ओर फिर  बड़ों की माफी पर छोटो का अधिकार सदियों से रहा हैं  -चलिए माफ़ी तो मिल ही गयी बचपन में ईसी तरह पापा माफ़ी के साथ टाफी भी दिया करते थे ..........पिछले पंद्रह  दिनों के वनवास में मैने सेविंग भी अभी बनाई हैं -इस दरमियाँ जिसने भी पूछा ,किसी शायर 
का ये हुकम उसे सुना दिया-"मेरे चेहरे पर दाड़ी के इज़ाफ़े को ना देख ,ख़त के मज़मून को पढ़ लिफ़ाफ़े को न देख"
हुआ यूँ की ख़त और ख़त के  मज़मून के साथ  कारपोरेट जगत के गलियारे से मुझ बेरोज़गार मज़नू को अपनी लैला रूपी एक अदद नौकरी से मिलने से पहले ही धक्के मार-मार कर निकाल दिया गया - मुझको सज़ा दी दाड़ी की ऐसा  क्या गुनाह किया ...........बेरोज़गार रहे हम दाड़ी के इज़ाफ़े में ........................ओ माय गोड -------------- जब पोस्ट लिखने बैठा था तो अंगारे और आक्रोश ही लिखने लायक ही था ..........पर ब्लॉग पर आते ही अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व और आप सब का ख्याल हो आया ............और माफ़ी के साथ थोडा मज़ाकिया हो लिया ................खैर जो आक्रोश और अंगारे मेरे ज़हन में हैं दरअसल हम सभी से उनका बहुत गहरा इत्तेफ़ाक हैं .और हमारी अमृता जी ने वह दुःख लिखा ही नहीं जिया हैं ..............असल में अमृता प्रीतम ने जो कुछ भी ज़िया हैं वही उनकी कलम का इश्क़ बनकर हम सबों को नसीब हुआ हैं -उनके लेखन में कौरी बोध्धिकता को कोई ज़गह नहीं हैं -उनका हर अक्षर अहसास का कोई रूहानी शिफ़ा हैं जो असल में हम दिल लगा बैठे दिल के रोगियों का एकमात्र इलाज हैं -"शुक्रिया अमृता जी -वरना हम लाइलाज़ रह जाते" . अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व ऐसी अनवरत शुक्रिया  अदायगी के साथ ही ज़िया जायेगा .............इस पूरे वर्ष-पर्व में अमृता जी के विषय में सिर्फ़ चर्चा ही नहीं होगी बल्कि देश-दुनिया के लिए उनका जो नज़रिया हैं उनसे जुडी तमाम बाते और आज के हिन्दुस्तान की जाँच-पड़ताल करते चलेंगे . हर किस्म के इंसानी हालातो को उन्होंने बड़ी शिद्दत के साथ ज़िया और लिखा ..............यह वर्ष पर्व अमृता जी को  सदा के लिए ख्याल और आत्मा में बसाने के लिए हैं  अपनी जिंदगी के हर पल में उन्हें महसूस करने के लिए ............समाज में होती हर अच्छी बुरी बात पर अमृता प्रीतम का नज़रिया क्या-कुछ होता और मोहोब्बत्त को दिल में बसा कर हमारा कर्म क्या होना चाहिए -मैं  जो भी टूटी-फूटी रचनाएँ और अपने ख्याल, इस पावन वर्ष-पर्व पर आपकी खिदमत में पेश करूँगा आप कठोरता से उनका आकलन कीजिये - मेरी रचनाओं पर आपकी आलोचना मेरा सोभाग्य हैं ,मुझे मेरे सोभाग्य से वंचित न करे ऐसा मेरा आप सभी से निवेदन हैं .
प्रशंशा के साथ ही आपकी आलोचनात्मक द्रष्टि मेरे स्वयं के विकास-क्रम हेतु बहुत ज़रूरी हैं अतः मुझे अपनी अंतर्द्रष्टि ke चेतना-लोक का हमसफ़र बना लीजिये ,अभी भले ही ना होऊं ,साथ चलते-चलते आपकी संगत में आपके योग्य हो सकूगा ..............................जब आग लगी .............
कल मेरे घर के सामने जो वाकया हुआ आज तक आग-अंगारे और आक्रोश मेरे ज़हन में ताजा हैं ,आर एस एस ने रात भर हिन्दुओं को उकसाने की कोशिश की - यह कितनी सफल और असफल रही मैं नहीं जानता पर इतना मालूम हैं बाजू वाली मुस्लिम बस्ती बहुत हद तक परेशान हैं .............नफ़रत दोनों तरफ हैं मोहोबत्त की दरकार हैं ..........अगर यह दोनों तरफ़ एक होकर हिन्दू-मुसलमान से जुदा होकर इंसान बन जाए तो कुदरत ही मोब्बत्त सिखला देगी हमें ...........फिरकापरस्ती ,कट्टरता से तो सब तवाह हो रहा हैं ,और पूरी तरह हो जाएगा ................नित नए विकास के सोपान चड़ते हम अपनी ही विकसित तहज़ीब को भूल बैठे हैं ,और जब भूल गए हैं तो याद क्यों नहीं करते .............दुबारा उसका विकास क्यों नहीं करते ............... हमें इतनी नफ़रत क्यों रास आ रही हैं .......
इस नफ़रत ने मेरे अन्दर अंगारे - आक्रोश और  अगीठी का इंतज़ाम कर दिया ............तमाम फिरकापरस्ती आवाज़ों के बीच मेरी तरुणाई जाने कहाँ खो गयी ...............  लगातार तीन घंटे तक मुल्क़ की तहज़ीब- तमीज़ को नोचते -खसोटते रहे तथाकथित धर्मों के ठेकेदार और मैं घर का नपुंसक बन गया क्यों ? क्यों? आखिर क्यों? ,

जल गया हूँ सीने में आग तो लगी नहीं ,
हिन्दुओं और मुस्लिमों की साख तो गिरी नहीं ,
नष्ट-भ्रष्ट हो गया मैं ,मज़हब सारे जल रहे  ,
मौन  व्रत धारण किया असाध्य रोग से बंधा ,
कैसे बोलूं इन्कलाब कौम से डरा हुआ मैं नपुंसक हो गया ,
जल
  रहा इंसान हैं ना हिन्दू हैं ना मुसलमान हैं ,
वेग से थका हुआ ,चारों और देखकर आँख  मीच सो गया मैं नपुंसक हो गया ,
जल रहा हूँ सीने में आग क्यों लगी नहीं पर ?,
आग को मैं देखता ,देखता ही रह गया ...................मैं नपुंसक हो गया ......
ना हिन्दू हूँ ना मुसलमान हूँ ,फिर क्यों अपराधी हो गया ......,
जल गया हूँ सीने में पर ज़ख्म ही नहीं हुआ .................हाँ मैं नपुंसक हो गया ..,
इंसान सारे जल गए ,धर्म शेष रह गए ,धर्म का करोगे क्या ?,
सब नपुंसक हो गए ..................,
इन्कलाब..................इन्कलाब         कौन बोले .इन्कलाब ...
इंसान तो रहे नहीं सब हिन्दू और मुसलमान हैं ...................,
देखते ही देखते सब नपुंसक हो गए ........................


हां दोस्तों हम सब क्या वाकई इतने उदासीन हो गए ,छोटे शहरों में .बडो मेट्रो में ............ हमारे  हिन्दुस्तानी गावं में ...................हर तरफ़ दुबारा से फिरकापरस्ती .कट्टरपंथी ताकते क्यों कर आजमाइश कर रही हैं ..........हिन्दुस्तान एक सतरंगी ग़ज़ल हैं ............................इसे हम कैसे बचाएं ................अमृता जी ज़हन में हैं ...........

  "हम नहीं जानते की जब कोई पत्थर उठाता हैं,
तो  पहला ज़ख्म इंसान को नहीं इंसानियत को लगता हैं ,
धरती पर जब पहला खून बहता  हैं ,
वो किसी इंसान का नहीं इंसानियत का होता हैं ,
और सड़क पर जो लाश गिरती हैं वह किसी इंसान की नहीं इंसानियत की होती हैं ,
फिरकापरस्ती ,फिरकापरस्ती हैं ,
 उनके साथ हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान शब्द जोड़ देने से कुछ नहीं होगा .
अपने आप में इन लफ्जों की आबरू हैं ,
इनका एक अर्थ हैं ,इनकी एक पाकीज़गी हैं ,.................
लेकिन फिरकापरस्ती के साथ इनका जुड़ना इनका बेआबरू हो जाना हैं ,
इनका अर्थहीन हो जाना हैं और इनकी पाकीज़गी का खो जाना हैं ,
जो कुछ गलत हैं वह सिर्फ़ एक लफ्ज़ में गलत हैं ,
फिरकापरस्ती लफ्ज़ में .
 उस गलत को उठाकर कभी हम हिन्दू लफ्ज़ के कंधो पर रक्क्क्क्क्क्क्क्क्ख देते हैं ,
कभी सिक्ख लफ्ज़ के कंधो पर ,
और कभी मुसलमान लफ्ज़ के कंधो पर ,
इस तरह कंधे बदलने से कुछ नहीं होगा .
ज़म्हुरियत का अर्थ ,लोकशाही का अर्थ ,चिंतनशील लोगो का मिलकर रहना हैं ,मिलकर बसना हैं ,
और चिन्तनशील लोगो के  हाथ में तर्क होते हैं .............पत्थर नहीं होते ................"
 सच दोस्तों हमारे हाथ में पत्थर होने भी नहीं चाहिए ............................अमृता जी के इस महान और निहायत ज़रूरी चिंतन के साथ आपको छोडे जा रहा हूँ ...............अबके ज़ल्द ही हाज़िरी दूंगा .......हो सकता हैं किसी कहानी या फिर छोटी - छोटी रचनाओं के साथ ...............आमीन ...................आपका इश्क़ .............