लगता हैं जीवन एक अपराध हैं ,
जो नित्य ही होता हैं ,
अगर मैं न चाहू तब भी ,
विश्राम में , सावधान में ,उत्तर में ,दक्षिण में ,पूरब ,पश्चिम में ,सभी दशो दिशाओं में ,
और हर तरफ अपराधी मैं ही हूँ ।
मेरे अपने स्वाभिमान में ,अपमान में ,जीवन की संगती या विसंगती में ....
शायद अपराध मेरी वृत्ति हैं ,सो मैं अपराधी हूँ ,
मेरे लिए यह कहना बहुत आवश्यक हैं की मैं अपने ही जीवन का अपराधी हूँ .............
ऋषभदेव शर्मा के काव्य में स्त्री विमर्श
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*शोध पत्र *
ऋषभदेव शर्मा के काव्य में स्त्री विमर्श
*- विजेंद्र प्रताप सिंह*
हिंदी में विमर्श शब्द अंग्रेजी के ‘डिस्कोर्स‘ शब्द के पर्याय के रूप में
प...
9 years ago
bahut hi sundar kawita ..........jindagi ke karib lagi
ReplyDeletebehtarin aur bahut khoob sahab
ReplyDeletebahut khoob...
ReplyDelete...kya sahi nazariya hai !!
yakeen mainyea main bhi yahi sochta hoon dost !!