"प्रहरी हूँ तेरे आँचल का माँ ,पाषण में भी बसते हैं तेरे प्राण माँ"
अमृता प्रीतम मेरे लिए मेरे जीवन की "त्रयी" हैं .मेरी आत्मा-चेतना-संवेदना की त्रयी . मेरा उखड़ा हुआ बदतमीज़ स्वभाव ,बुध्धि जड़ और ह्रदय सूखा था .मैं दिन-रात महत्वाकांक्षा के ज्वर में जीवन से भीख मांग कर, एक महत्व हिन् भिखारी की तरह महलो के सपने पालता रहता ,सपने तो पल-पुसकर बड़े हो गए पर मेरा यह भिखारीपन अनवरत जारी रहा ........................मनोविज्ञान में इसे श्रेष्टता की ग्रंथि (सुपिरिअर्टी काम्प्लेक्स) कहते हैं . हकीकत को जानने समझने के लिए होशो-हबाश में रहना होता हैं .मन पर महत्वाकांक्षा हावी हो जाये तो हम और हमारी इन्द्रियां जीवन की त्रयी-त्रवेणी संवेदना-चेतना-आत्मा से किनारा कर लेते हैं मैं बहुत दिनों तक एसा ही करता रहा और शायद आज़-तलक . मैं आवारा था -मेरी समझ मैं आवारा होना तो सुफीओं का शग़ल हैं यह अधिकार तो कबीर ,मीरा ,जायसी जैसे संतों का हैं .तब तो निश्चित ही मैं आवारा नहीं गिरा हुआ ,लुच्चा ,लफंगा ,और बदमाश ( एल .एल .बी ) था . और इस पर दिलचस्प यह की मेरे घर और दुसरे तमाम लोग-बाग़ मुझे काफी पढने-लिखने वाला सीधा-साधा समझधार समझते रहे .........सोचता हूँ कैसी थी उनकी समझ और हां वार्षिक परीक्षा में ना सही अर्धवार्षिकी में मेरे नंबर अक्सर सर्वाधिक हुआ करते थे .अब देखिये न यह मेरा स्वभाव ही तो हैं कभी कभार थोडा बहुत मिला नहीं की अपने को सुप्रीम समझने लगे ..........और अर्धवार्षिकी से वार्षिकी तक आते-आते यह सूप्रीमेसी किसी और की गर्लफ्रेंड या सहेली बन जाया करती थी .हां अगली कक्षा ज़रूर फिर इस सूप्रीमेसी नामक गर्लफ्रेंड को पाने की हसरत से शुरू होती यह और बात हैं की यह हसरत कभी पूरी नहीं हुयी .............खैर खेल-कूद और मिठाई-सिठाई के बीच स्वर्गीय मुकेश साहब के गीत गुनगुनाते हुए स्वयं को मुकेश समझ कर यह गम भी हल्का कर लेते थे ..........बहुत कमीना होने के बाबजूद मैं अक्सर लाइब्रेरी जाया करता ,यह लाइब्रेरी शहर में कहीं भी हो सकती थी ,मैंने यहाँ क्यों जाना शुरू किया -नहीं मालूम पर नियम था जाने का जो कमबख्त टूटता ही न था ......यहाँ अखबारों और किताबों से मुलाकात हुयी .......किताबे इतनी अच्छी दिलकश गर्लफ्रेंड और उससे भी अच्छी हो सकती हैं यही आकर जाना .........अभी तलक तो स्कूल के प्रिंसिपल जैसी सिलेबस की किताबों का तज़ुर्बा था न यार .........पर अब प्यार हो गया किताबों से .इन प्यारी किताबों के बीच मेरा पापी मन धीरे-धीरे अपने पाप को कुबूल करने लगा था पर मै बेचैन था , क्यों था ? यह तो दिल ही जानता था और मैं पापी दिल से कहाँ रूबरू था .............. .............इसी तरह एक रोज़ किताब मिली "खामोशी के आँचल में" .दरअसल उफनती हुयी जवानी में ऐसे शीर्षक सोंधी मिटटी की खुशबु की तरह साँसों में समां जाते हैं ...................जब "खामोशी के आँचल" की छाव में हम बैठे तो अपने दिल से पहली मर्तबा , इमानदारी से रूबरू हुए .किताब पर नाम था अमृता प्रीतम ................................और आज मेरे दिल में नाम हैं माँ अमृता प्रीतम. तब से लेकर आज तक मेरे चेतन और अवचेतन मन ने कितने ही बदलावों को अपने अन्दर ज़ज्ब कर लिया हैं और यह प्रक्रिया निरंतर जारी हैं . अमृता प्रीतम और माँ अमृता प्रीतम मेरे जीवन के दो छोर हैं ,और अमृता प्रीतम से पहले का जीवन एक भटकता हुआ भ्रष्ट महत्वकांक्षी जीवन .........जो था भ्रष्ट मैं ही था ,जो था अस्त मैं ही था ,अंधियारे में मैं ही था ,सूर्योदय से बेखबर मैं ही था ,प्रातः प्रहर की म्रत्युशैया पर था मैं ,जीते जी एक लाश था ,चेतना से दूर जड़ता का बिन्दु ,सावन में सूखा ,भादो में मलिन ,चाँद-तारों की जगमगाहट के दरमियान अपने निज दुखों में तल्लीन ,अश्वों की दौड़ से आतंकित ,अपने ही गुरुर में गिरा हुआ ,तुच्छ ह्रदय ............नकारा .............तमाम दोष-दुर्गुणों के बीच मेरे जीवन ने फिर भी मुझे स्वीकारा ..............क्योंकि जीवन सदैव करुणावान हैं ...........यह माँ अमृता प्रीतम ने ही मुझे सिखलाया .............अमृता प्रीतम रूहानी ताकतों की रचनाकार हैं .........खासकर १९७० के बाद का उनका रचना-संसार ऐसा ही हैं की वे अपनी रचना-प्रक्रिया में पाठक को दिमागी तौर पर ही नहीं इससे बहुत ज़्यादा हद तक शामिल कर लेती है और फिर हर पाठक की अपनी अनुभूतियाँ हैं की वह रूहानी तौर पर अमृता जी से कितना राज़ी होता हैं .....और अनायास ही उनके साथ कितनी देर तलक बहता हैं ,बहता रहता हैं . इसी बहाव में संवेदना-चेतना-आत्मा की त्रयी आती हैं और यह त्रवेणी अंहकार के घाट से दूर एक निर्मल -पावन
त्रवेणी घाट पर आपका स्वागत करती हैं अब यह आप पर निर्भर करता हैं की आप कितनी देर तलक यहाँ ठहर पाते हैं ,मैंने आपसे शुरू में इसी दुर्लभ त्रयी का ज़िक्र किया ..............पर मैं यहाँ बहुत देर नहीं ठहर पाता ,अक्सर ही मेरा "मैं" मुझे रोक लेता हैं चलिए फिर कोशिश करते हैं . बहुत-बहुत शुक्रिया दोस्तों आप बहुत देर से मेरे साथ हैं ...............और ज़रूर आगे भी रहेगे ...............मैंने अपने ब्लॉग के माध्यम से ३१ अगस्त २००९ से ३१ अक्टूबर २०१० तक को आपके साथ अमृता प्रीतम वर्ष-पर्व के रूप में जीने का ख़याल किया हैं आपके सुझाव सादर आमंत्रित हैं बल्कि ज़्यादा सच यह हैं की इस वर्ष-पर्व की तैयारी व् सफलता आपके ही हाथों में हैं .
बहुत साधुवाद !
ऋषभदेव शर्मा के काव्य में स्त्री विमर्श
-
*शोध पत्र *
ऋषभदेव शर्मा के काव्य में स्त्री विमर्श
*- विजेंद्र प्रताप सिंह*
हिंदी में विमर्श शब्द अंग्रेजी के ‘डिस्कोर्स‘ शब्द के पर्याय के रूप में
प...
9 years ago
बढ़िया ख्याल है! शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteintajar rahega.
ReplyDeleteबहुत शुभकामनायें ..!!
ReplyDeleteaccha hai........
ReplyDeleteअति सुन्दर शुभकामनायें
ReplyDeleteNEK AUR UTTAM IRAADA HAI ... AAPKI LEKHNI BHI KAMAL KI HAI ..... SHURUAAT KAREN, SHUBHKAAMNAAYEN HAIN ....
ReplyDeleteBhaav vibhor kar diya aapne.
ReplyDelete( Treasurer-S. T. )
pinjar.....
ReplyDeletewali amrita pritam aapki traiy jaankar prasnannta hui.
badi post thi karke kai baar bine padhe hi wapas laut jata tha ki fursta main padhoonga....
kyunkien furst kiston main milti hai bhai...
...kramsah hai ye.
wow !!!
"Pinjar"
I remember her with this book.
One of the best book i've ever read.
Thanks for sharing her thoughts.
and thanks for ur efforts friend.
koi book suggest bhi kar dete humein unki.
aapke prayason ke liye hamari subhkamnaayei nahi hain....
ReplyDelete....kyunki subhkamnaayein to paraye dete hain, hamar to saath hai....
...aur ye saath zindagi bhar ka.
:)
हूँ .....आदित्य आफ़ताब "इश्क़" जी,
ReplyDeleteआपका 'कन्फेशन' पढ़े........हमको तो वैसे भी लगता है आप बदमाश हैं.....उ भी एक लम्बर के......
अब 'अमृता जी का बेटा' और बदमाश कुल मिला कर, एक नायब और नया 'कोकटेल' है......
अब इ नया 'टेस्ट' पढ़वैया लोगन में डेवेलोप हो रहा है.... ३१ अक्टूबर तक सब इ ड्रग का आदी हो ही चुके होंगे.......
फिर का है गिरते-पड़ते पहुँचबे करेंगे जी......पढने. ......
रचना कितना अच्छा है ...इ कहने का ताब नहीं है हम में .....इतना जो लम्बा-चौड़ा लिख दिए हैं हम उसी से समझ जाइए कि केतना अच्छा है....
आपको जितना भी पड़े शब्दों के माध्यम से लगता है पड़ते ही जायें आपकी लेखनी रुके ना और मेरा पड़ना रुके ना .
ReplyDeleteसही कहाँ आपने अमृताजी की वह पुस्तकें जिनमें रूहानी शक्तित्यों का जिक्र आया है , फिर वो शक्ति पाक मुहब्बत के रूप में हो चाहे रूहानी इल्म के पता ही नहीं चलता कब उसमें डूब गयें . आपके ब्लॉग के माध्यम से अमृता वर्ष पर्व जीने और अमृताजी के और निकट आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ इसके लिए धन्यवाद .
बहुत बडिया विचार हैं अमृता जी का नाम आये और हम ना पढें ये कैसे हो सकता है वो जिस रूह के शहर मे रहती थी़ उसमे जाने की तमन्ना तो अपनी भी थी मगर उन जैसी लकीरें नहीं हैं बहुत बहुत शुभकामायें और आशीर्वाद्
ReplyDeletemere bhai, tu chupa tha kahan....
ReplyDelete(tu kaha hai asha karta hoon bura nahi lagega)
pata nahi kyun aapki job chut jaane par bura sa laga....
बसता है रूह में इश्क जिसके ,लोग उसको अमृता प्रीतम कहते हैं ..बहुत अच्छा लगा आपका यह लेख पढ़ कर ..जब से मैंने अमृता प्रीतम को पढना शुरू किया तो खुद से कहा अमृता तुमने मुझे बिगाड़ दिया ..तुम्हे तो इमरोज़ मिला बाकी का क्या होगा ..अमृता के लिए आँखों में प्यार ही प्यार देखा था इमरोज़ की नजरों में ...वह कुछ थी ही ऐसी की उनको भुलाना मुश्किल है ..जरी रखिये यह सफ़र अमृता के साथ साथ ...शुभकामनाएं
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteकिताबे इतनी अच्छी दिलकश गर्लफ्रेंड और उससे भी अच्छी हो सकती हैं यही आकर जाना ....pahli baar apka blog padha bahut achha likhte hai aap...
ReplyDeleteजो बचपन मे लायब्रेरी जाता है , मुकेश के गीत गाता है और , अमृता प्रीतम को पढ़ता है वह बड़ा होकर सम्वेदंशील लेखक बनता है , जैसे मै .. । अच्छा है अतीत को इस तरह याद करना , बधाई -शरद कोकास दुर्ग छ.ग.
ReplyDelete@ sharad kokas ji ya to aapki tarah accha lekhak banta hai ya meri tarah barbaad ho jaata hai...
ReplyDelete...kyun sahi keh raha hoon na aftaab ji...
Job ka kya hua ? Nibandh pass hua ki nahi?
bhagwaan kare aapki job zaldi lag jaiye phir khoob baatein kareinge...
Patahee nahee tha,ki, is blog pe meree sabse adhik pasandeeda lekhika ke bare me itne aatmeey bhav se likha padhne milega! Shukriya!
ReplyDeletebahut hi achchi prastuti.....
ReplyDeletesir kuch is vichar dhara ka prvha hum par bhi kar do ye mai orkut se link kar du kya
ReplyDeleteaur bhi logo tak ye pahuch jayegi jaldi bato
sabne bahut kuchh kah diya main bhi unse sahmat hoon .sundar lekh .main amrita ji ke chahnewalon me se ek hoon .wo mujhe behad pasand hai .
ReplyDeleteमै भी आमृता जी की रचनाओ का दिवाना हूँ......मुझे उनकी हर रचनाये जो मेरे आत्मा को छूती है .........वह जो भी कह लिखकर गयी है वह मेरे रुह से होकर गुजरती है ऐसा मै कह सकता हूँ..............मुकेश के गाने भी......एक सुन्दर प्रस्तुति .......बहुत ही सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteमैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
ReplyDeleteआप का स्वागत है...
आमृता जी की रचनाओ का दिवाना हूँ..
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete