उखड़ा पौधा हरा भरा हैं ,
एकाध दफ़ा तो मरकर देखों ,
फूल खिला हैं कांटे भी हैं ,
काँटों पर थोडा चलकर देखों ,
मन मैला और हरामी ,मीरा की पायल पहन के देखों ,
मन की आदत जलने कि हैं
अपने अन्दर हवन जलाकर देखों ,
जलती काया मातम जैसी ,
ज़िस्म में रूह पिरोकर देखों .................
अच्छी मानवता पे आधारित कविता के लिए धन्यवाद / वैकल्पिक मिडिया के रूप में ब्लॉग और ब्लोगर के बारे में आपका क्या ख्याल है ? मैं आपको अपने ब्लॉग पर संसद में दो महीने सिर्फ जनता को प्रश्न पूछने के लिए ,आरक्षित होना चाहिए ,विषय पर अपने बहुमूल्य विचार कम से कम १०० शब्दों में रखने के लिए आमंत्रित करता हूँ / उम्दा देश हित के विचारों को सम्मानित करने की भी वयवस्था है / आशा है आप अपने विचार जरूर व्यक्त करेंगें /
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
ReplyDelete... बेहद प्रभावशाली
ReplyDeleteआपके शब्दों का जादू चल रहा है ... भाव-पूर्ण, जीवन जीने का नया अंदाज़ ...
ReplyDeletebahut sundar baat kahi...achchi seekh mili...dhanyawad
ReplyDeleteमन की आदत जलने कि हैं
ReplyDeleteअपने अन्दर हवन जलाकर देखों ,
जलती काया मातम जैसी ,
ज़िस्म में रूह पिरोकर देखों .................
वाह बहुत खूब ....!!
मन की आदत जलने कि हैं
ReplyDeleteअपने अन्दर हवन जलाकर देखों ,
जलती काया मातम जैसी ,
ज़िस्म में रूह पिरोकर देखों .................
Behad sundar rachana!
khubsurat,bhavpurn rachna
ReplyDeletekyaa baat....kyaa baat...kyaa baat......
ReplyDeleteआखिर कितनी देर हर भरा रहेगा उखाड़ा पौधा..अवसाद सा है कविता में.कुछ उजड़ा पुजडा सा है जैसे.जिस्म में रूहे ही तो पिरोई नहीं जाती..यही मुश्किल कम आपने कहा..जिस्म तो मिट्टी है रूह रह जाएगी ज़ो जिस्म में बेचैन सी है..इक बेचैनी आपकी कविता में भी है.वैसे चेतना का अनुपात बढ़िया है..
ReplyDeleteजलती काया..मातम जैसी....जिस्म में रूह पिरोकर देखो....
ReplyDeleteथोड़ा जीवन ....बाकी मृत्यु ...
और फिर दोबारा से ...थोड़ा सा जीवन....!!
मन की आदत जलने कि हैं
ReplyDeleteअपने अन्दर हवन जलाकर देखों ,
laazwaab ,bahut hi achchhi lagi panktiyaan .
bahut achha likhte hain aur likiiye hum intizar kareege....
ReplyDeletewah....Behtreen..sadhuwaad swikaren..
ReplyDeletebahut khub....
ReplyDeleteachha laga padhkar...
yun hi likhte rahein..
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mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/
badhiya rachna ki apane
ReplyDeletebadhai
Jism mein rooh piro kar dekho...
ReplyDeleteEk baat kahoon! Agar aap ise highlight nahin karte to bhi, ye hi aapki kavita ka 'punch' hai!
Bahut acchha likha hai!
मन की आदत जलने कि हैं
ReplyDeleteअपने अन्दर हवन जलाकर देखों ,
जलती काया मातम जैसी ,
ज़िस्म में रूह पिरोकर देखों .
ek baar phir padha achchhi rachna hai
aap kai dino se nazar nahi aaye .
bahut samay hua aapse blog par mile hue..... kab lagega is intazar par PURNVIRAM?
ReplyDeleteसुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं.
ReplyDeleteआपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.